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________________ अर्थ-पुनः विवाह पश्चात् पिता के घर से ससुराल को जाते समय जो कुछ वह भाइयों और कुटुम्ब जनों के समक्ष लावे वह आभूषणादिक सब अध्यावनिक स्त्री-धन कहलाता है ॥ १३६ ॥ प्रीत्या स्नुषायै यहत्त' श्वश्वा च श्वशुरेण च । मुखेक्षणांघ्रिनमने तद्धनं प्रीतिज भवेत् ॥ १४० ॥ अर्थ--मुख दिखाई तथा पग पड़ने पर सासु ससुर ने जो कुछ दिया हो वह प्रीतिदान स्त्रीधन कहलाता है ॥ १४० ॥ पुनर्धातुः सकाशाद्यप्राप्त पितुगृहात्तथा । ऊढया स्वर्णरत्नादि तत्स्यादैादयिकं धनम् ।। १४१ ।। अर्थ--विवाह पीछे फिर जो सोना रत्नादि विवाहित स्त्री अपने भाइयों अथवा मैके से लावे वह औद्यक स्त्री-धन कहलाता है ॥१४१।। परिक्रमणकाले यदर्ता रत्नांशुकादिकम् । जायापतिकुलस्त्रीभिस्तदन्वाधेयमुच्यते ॥ १४२ ।। अर्थ--और परिक्रमा समय जो कुछ रत्न, रेशमी वस्त्रादिक पति के कुटुम्ब की खियाँ व विवाहित स्त्री वा पुरुष से मिले वह अन्वाधेय स्त्री धन कहलता है ।। १४२ ।। एतत् स्त्रोधनमादातुन शक्तः कोऽपि सर्वथा । भागा नाह यतः प्रोक्तं सर्वैर्नीतिविशारदैः ॥ १४३ ।। अर्थ--उपयुक्त प्रकार के स्रोधन को कोई दायाद नहीं ले सकता है। कारण कि सर्वनीतिशास्त्रों के जाननेवालों ने इनको विभाग के अयोग्य बतलाया है ।। १४३ ।। धारणार्थमलङ्कारो भर्ना दत्तो न केनचित् । गृह्यः पतिमृतौ सोऽपि व्रजेत्स्त्रीधनतां यतः ।। १४४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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