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________________ प्रथे - उक्त विधवा सासु के इच्छानुकूल सपा हुआ घर का कार्य उसकी प्रसन्नता के लिए करती रहे, क्योंकि सासु माता समान होती है ।। १०८ ॥ गृह्णीयाद्दत्तकं पुत्रं पतिवद्विधवा वधूः । न शक्ता स्थापितुं तं च श्वश्रूर्निजपतेः पदे ॥ ११०॥ अर्थ - विधवा बहू को दत्तक पुत्र अपने पति की तरह लेना चाहिए । सासु अपने पति के स्थान पर किसी को दत्तक स्थापन नहीं कर सकती ॥। ११० ।। स्वभर्वोपार्जितं द्रव्यं श्वश्रूश्वशुरहस्तगम् । विधवाप्तुं न शक्ता तत्स्वामिदत्ताधिपैव हि ॥ १११ ॥ अर्थ - पति के निजी धन में से जो द्रव्य सासु श्वसुर के हाथ लग चुका है उसको विधवा बहू उनसे वापिस नहीं ले सकती । जो कुछ पति ने उसको अपने हाथ से दिया है वही उसका है ॥ १११ ॥ नोट- जो कुछ पति ने अपने पिता माता को दे डाला है उसकी मृत्यु पश्चात् लौटाया नहीं जा सकता | अपुत्रपुत्रमरणे तद्द्द्रव्यं लाति तद्वधूः । तन्मृतौ तस्य द्रव्यस्य श्वश्रूः स्यादधिकारिणी ॥ ११२ ॥ अर्थ -- जो पुत्र सन्तान बिना मरे उसका द्रव्य उसकी विधवा को मिले, और उस विधवा बहू की मृत्यु हो जाय तब उसका द्रव्य सासु लेवे ।। ११२ ।। रमणोपार्जितं वस्तु जंगमं स्थावरात्मकम् । देवयात्रा प्रतिष्ठादिधर्म्मकार्ये च सौहृदे ॥ ११३ ॥ श्वसत्वे व्ययीकर्तुं शक्ता चेद्विनयान्विता । कुटुम्बस्य प्रिया नारी वर्णनीयान्यथा नहि ॥ ११४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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