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________________ तथापीशो व्यय कर्तुं न ह्यवानुमति विना । सुते परासौ तत्पनी भतुर्धनहरी स्मृता ॥ १०४ ॥ यदि सा शुभशीला स्त्री श्वश्रूनिर्देशकारिणी । कुटुम्बपालने शक्ता स्वधर्मनिरता सदा ।। १०५ ॥ अर्थ-तो भी पुत्र को माता की सम्मति बिना खर्च करना उचित नहीं है। परन्तु उसके मरने पर उसकी स्त्री भर्तार के धन की स्वामिनी होगी। अगर वह सुशीला आज्ञावान् कुटुम्बपालन में तत्पर और स्वधर्मानुगामिनी है ।। १०४-१०५ ॥ सानुकूला च सर्वेषां स्वामिपर्य कसेविका।। शुश्रूषया च सर्वेषु विनयानतमस्तका ॥ १०६ ।। नहि सापि व्यय कतु समर्था तद्धनस्य वै । निजेच्छया निजा श्वश्रूमनापृच्छय च कुत्रचित् ॥ १०७ ।। अर्थ-यदि उक्त विधवा कुटुम्ब जनों के अनुकूल है, भर्ती की शय्या की सेवक है सासु का आदर करनेवाली है तो भी सासु की प्राज्ञा ( सम्मति ) बिना अपने पति का द्रव्य खर्च नहीं कर सकती है ॥ १०६-१०७॥ नोट-ये दोनों श्लोक पिछले दोनों श्लोक अर्थात् १०४--१०५ के साथ मिलकर खानदान के लिये एक उमदा कायदा कायम करते हैं जो वास्तव में केवल हिदायती ( शिक्षा रूप में) है। श्वशुरस्थापिते द्रव्ये श्वश्रू सत्वेऽथवा वधूः । नाधिकारमवाप्नोति भुक्त्याच्छादनमंतरा ॥ १०८ ॥ अर्थ-जिस विधवा की सासु जीवित हो उसको ससुरे के धन में केवल भोजन वस्त्र का अधिकार है, विशेष दाय का नहीं ॥१०८॥ दत्तगृहादिकं सर्व कार्य श्वश्रूमनोऽनुगम् । करणीय सदा वध्वा श्वश्रू मातृसमा यतः ।। १०६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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