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पूर्वक जातिकर्म करावे। फिर यह प्रसिद्ध होगा कि यह पुत्र इनका है ॥५६-६४॥
तदैवापणभूवास्तुग्रामप्रभृतिकर्मसु । अधिकारमवाप्नोति राजकार्येष्वय पुनः ।। ६५ ।।
अर्थ-इस पर ( दत्तक पुत्र ) दुकान, पृथ्वी, मकान, गाँव आदि के कामों में अधिकार प्राप्त करता है ॥६५॥
सवर्णस्यौरसोत्पत्तौ तुयांशा) भवत्यपि । भोजनांशुकदानार्हा असवर्णास्तनंधयाः ॥६६।।
अर्थ-दत्तक पुत्र किये पश्चात् सवर्णा स्त्री से औरस पुत्र उत्पन्न हो तो दत्तक को चौथाई भाग मिले, परन्तु अन्य वर्ण की स्त्रो से पुत्र जन्मे तो वह केवल भोजन वस्त्र का ही अधिकारी होता है ॥६६॥
नोट-यहाँ लॉ का मन्शा केवल उस दशा से विदित होता है जब कि वैश्य पिता के वैश्य और शूद्रा दो वर्षों की स्त्रियाँ हैं। अब यदि वैश्याणी से पुत्र उत्पन्न हो तो दत्तक को " भाग कुल धन का मिलेगा। शेष सब औरस पुत्र पावेगा। और जो शूद्रा से हो तो वह दत्तक सर्व सम्पत्ति पावेगा।
गृहीते दत्तके जाते औरसस्तर्हि बन्धनम् । उष्णोषस्य भवेत्तस्य नहि दत्तस्य सर्वथा ॥ ६७ ॥
अर्थ-~यदि किसी ने दत्तक पुत्र ले लिया हो और फिर औरस पुत्र उत्पन्न हो तो पगड़ी बाँधने का अधिकारी औरस पुत्र ही होगा। दत्तक पुत्र को पगड़ी बाँधने का सर्वथा अधिकार नहीं है। ६७ ॥ .
तूर्यमंशं प्रदाप्यैव दत्त: कार्य: पृथक् तदा । पूर्वमेवाष्णीषबन्धे यो जातः स समांशभाक ॥ ६८॥
अर्थ--उस समय दत्तक पुत्र को चौथाई भाग देकर अलग कर देना चाहिए। यदि दत्तक पुत्र को पहिले पगड़ी बाँध दी गई हो
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