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भवेच्चेत्प्रतिकूलश्च मृतवध्वाः कथंचन । तदा सा विधवा सद्यः कृतन तं मदाकुलम् ॥४६।। भूपाज्ञापूर्वकं कृत्वा स्वाधिकारपदच्युतम् । नरैरन्यैः स्वविश्वस्तैः कुलरीतिं प्रचालयेत् ।।५०॥
अर्थ-ऐसा शख्स जिसको रोग के बढ़ जाने से जीने की आशा न रही हो चाहे वह पुत्रवान् हो अथवा न हो, परन्तु स्त्री उसके हो, वह अपने धन की रक्षा के लिए ऐसे व्यक्ति को जो कुलीन और द्रव्यवान हो एक लेख द्वारा जिस पर राजा की आज्ञा हो और गवाहों की साखी | रक्षक नियत करे। स्वामी की मृत्यु पश्चात् यदि वह रक्षक उसके द्रव्य को खा जाय या नष्ट करे अथवा उसकी विधवा के प्रतिकूल हो जावे तो बेवा को चाहिए कि तत्काल राजा की आज्ञा लेकर ऐसे विश्वासघाती कृतघ्न पुरुष को अधिकाररहित कर किसी अपने विश्वासपात्र दूसरे मनुष्य से कुलरीत्यनुसार काम लेवे ॥४६-५०॥
तद्रव्यमतियत्नेन रक्षणीयं तया सदा । कुटुम्बस्य च निर्वाहस्तन्मिषेण भवेद्यथा ।।५।। सत्यौरसे तथा दत्ते सुविनीतेऽथवासति । कार्ये सावश्यके प्राप्ते कुर्यादानं च विक्रयम् ।।५२।।
अर्थ-उस ( विधवा ) को द्रव्य की बड़े यत्नपूर्वक रक्षा करनी उचित है। जिससे उसकी ( विधवाकि) चतुराई से कुटुम्ब का पालन हो। औरस पुत्र हो अथवा विनयवान दत्तक पुत्र के होते हुए और पुत्र के अभाव में भी वह विधवा स्त्री प्रावश्यकता के समय पति के धन में से दान कर सकती है वा बेच सकती है ॥५१-५२॥
भ्रष्टे नष्टे च विक्षिप्ते पत्यौ प्रव्रजिते मृते । वस्य निःशेषवित्तस्याधिपा स्याद्वरवर्णिनी ॥५३।।
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