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किये, जो रक्षा कर बचा ले ऐसी संपत्ति को अन्य दायादों को न दे; और जो विद्या से धन उपार्जन करे तथा जो निज को मिला हो अथवा आभूषण-वस्त्रादि और इसी प्रकार की और वस्तुओं को भी न दे ॥१६--२१ ॥
गिण्हेदि ण दायादा पडति णरये ण हा चाबि । णियकारिय कूवाइय भूषण वत्थुय धयोवि ।। २२ ॥ णिय एबहि होई यहू अण्णेये तस्स दायदा णोबि। पोयाहु पितदब्बं णिय यं चउवजियं तहा णेयं ॥ २३ ॥
अर्थ-उपर्युक्त धन को और कोई दायाद नहीं ले सकता, जो लेगा वह नरक में पड़ेगा । और जो किसी ने स्वयं कूप, भूषण, वस्त्र बनाया हो और गोधन तथा इसी तरह की अन्य सम्पत्ति जो किसी ने प्राप्त की हो वह स्वयं उसी की होती है। उसमें कोई भागी नहीं होते हैं। इसी तरह से समझ लेना चाहिए कि पोते ने पिता का जो द्रव्य फिर प्राप्त किया हो उसका अथवा अपनी स्वयं पैदा की हुई जायदाद का वही मालिक होता है ।। २२-२३ ॥
णिय पिउमहे जे दब्बे भाउजण णीछिया सुहवे । धण्ण' जं अविहतं तहेव तं समंसमं णेयं ॥२४॥
अर्थ-पितामह के द्रव्य का विभाग माता और भाईयों की आज्ञा के अनुकूल होता है। जो धन बँदा नहीं है वह इसी तौर से समानांश बाँटने योग्य है ।। २४ ।।
धाइणिवं ठावर सामित दुण्ह लत्य सरसम्मि । जोद सुद बिमाउ णे उहि सवणजणिय बहु सरिसो ॥ २५ ।।
अर्थ-पृथ्वी (और पितामह के और स्थावर धन) में पिता व पुत्र का अधिकार समान है; और यदि भाग ले चुकने के पश्चात् सवर्णी
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