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________________ अर्थ - सास-ससुर ने जो कुछ मुखदिखाई अथवा पाँव पड़ने के समय प्रीतिपूर्वक दिया हो वह प्रीतिदान स्त्रीधन है ॥ ४२ ॥ ऊढया कन्यया चैवं यत्तु पितृगृहात्तथा । भ्रातुः सकाशादादत्त धनमादयिकं स्मृतम् ||४३|| अर्थ - विवाह के पीछे माता-पिता के रिश्तेदारों से जो कुछ मिला हो वह प्रदयिक है ||४३|| विवाहे सति यद्दत्तमंशुकं भूषणादिकम् । कन्याभर्तृकुलस्त्रीभिरन्वाधेयं तदुच्यते ॥ ४४॥ अर्थ - जो कुछ गहना इत्यादि पति के कुटुम्ब की स्त्रियों से विवाह के समय प्राप्त हुआ हो वह अन्वाधेय कहलाता है || ४४ || एवं पञ्चविधं प्रोक्तं स्त्रीधनं सर्व सम्मतम् । न केनापि कदा ग्राह्य' दुर्भिचाऽपट्टषाहते ॥४५॥ अर्थ — यह पाँच प्रकार का स्त्रोधन है । इसको दुर्भिक्ष, कड़ो आपत्ति के समय अथवा धर्म-कार्य के अतिरिक्त कोई नहीं ले सकता है ||४५ || दुर्भिक्षे धर्मकार्ये च व्याधौ प्रतिरोधके । गृहीत स्त्रीधनं भर्त्ता न स्त्रियै दातुमर्हति ॥ ४६ ॥ अर्थ -- दुर्भिक्ष में, धर्म-कार्य में, रोग की दशा में, ( व्यापार यदि की) बाधाओं के दूर करने के लिए यदि भर्ता स्त्रीधन को व्यय कर दे तो उसको लौटाने की आवश्यकता नहीं ||४६ || पित्रोः सत्वे न शक्तः स्यात्स्थावरं जगमं तथा । विविक्रय ं ग्रहीतु ं वा कतु पैतामहं च सः || ४७|| ( देखे भद्रबाहुसंहिता ६० ) ।। ४७ ।। मुक्तयुपायोद्यतश्चैको विभक्तेषु च भ्रातृषु । स्त्रीधनं तु परित्यज्य विभजेरन्समं धनम् ||४८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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