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ऊढपुत्र्यां परेतायामपुत्राय च तत्पतिः । स स्त्रीधनस्य द्रव्यस्याधिपतिश्च भवेत्सदा ॥ १३ ॥ ( देखो भद्रबाहुसंहिता २८ ) ।। १३ ।। पत्युर्धनहरी पत्नी या स्याच्चेद्वरवर्णिनी । सर्वाधिकारं पतिवत् सति पुत्रेऽथवाऽसति ॥ १४ ॥
अर्थ - विधवा स्त्री पतिव्रता हो तो पति के सम्पूर्ण धन की स्वामिनी होगी । उसको पति की भाँति पूरा अधिकार प्राप्त होता है चाहे लड़का हो या न हो ॥ १४ ॥
पितृद्रव्यादिवस्तूनां मातृसत्वे सुतस्य हि ।
सर्वथा नाधिकारोऽस्ति दानविक्रयकर्मणि ।। १५ ।।
अर्थ - माता के होते हुए दत्तक अथवा आत्मज पुत्र को पिता की स्थावर जङ्गम वस्तु के दान करने वा बेचने का सर्वथा अधिकार नहीं है ।। १५ ।।
योऽप्रजा व्याधिनिर्मप्रश्चैकाकी स्त्र्यादिमोहितः । स्वकीय व्यवहारार्थं कल्पयेल्लेख पूर्वकम् ।। १६ ।। अधिकारिणमन्यं वै ससादि स्त्रीमनोनुगम् । कुलद्वय विशुद्धं च धनिनं सर्वसम्मतम् ॥ १७ ॥
अर्थ- संतान रहित अकेला पुरुष व्याधि आदि रोग से दुःखित होकर स्त्री के मोहवश (अर्थात् उसके इन्तिज़ाम के लिए) यदि अपने धन के प्रबन्धार्थ किसी प्राणी को प्रबन्धकर्ता बनाना चाहे तो लिखित लेख द्वारा गवाहों के समक्ष ऐसे प्राणी को नियत कर सकता है कि जो लिखनेवाले की स्त्री की आज्ञा पालनेवाला है, जो जाति और कुल की अपेक्षा उच्च है, जो धनवान है और जो सबको मान्य है ।। १६-१७ ।।
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