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________________ विवाहकाले पितृभ्यां दत्तं यदभूषणादिकम् । तदध्यग्निकृतं प्रोक्तमग्निब्राह्मणसाक्षिकम् ॥ ८५ ॥ अर्थ-विवाह समय में जो माता-पिता ने भूषणादिक द्रव्य अग्नि और ब्राह्मणों की साक्षो में दिया हो वह अध्यग्नि कहा जाता है || ८५ ॥ यत्कन्यया पितुर्गेहादानीतं भूषणादिकम् । अध्याह्ननिकं प्रोक्तं पितृभ्रातृसमक्षकम् ॥ ८६ ॥ अर्थ - जो धन पिता के घर से कन्या पिता व भाइयों के सामने दिया हुआ लावे उसको अध्याहृनिक अर्थात् लाया हुआ कहते हैं || ८६ || प्रीत्या यद्दीयते भूषा श्वश्र्वा वा श्वशुरेण वा । मुखेचणाङ्ग्रहणे प्रीतिदानं स्मृतं बुधैः ॥ ८७ ॥ अर्थ — जो धन-वस्त्रादि श्वशुर तथा सास ने मुखदिखाई तथा पादग्रहण के समय प्रीतिपूर्वक दिया उसको बुद्धिमान् लोग प्रीतिदान कहते हैं ॥ ८७ ॥ ग्रानीतमूढकन्याभिर्द्रव्यभूषांशुकादिकम् । पितृभ्रातृपतिभ्यश्च स्मृतमादयिकं बुधैः ॥ ८८ ॥ अर्थ-विवाह के पश्चात् पिता, भाई, पति से जो धन, भूषण, वस्त्रादि मिले वह औदयिक कहा जाता है ॥ ८८ ॥ परिक्रमणकाले यद्धेमरत्नांशुकादिकम् । दम्पती कुलवामाभिरन्वाधेयं स्मृतं बुधैः ॥ ८६ ॥ अर्थ - विवाह समय में अपने पति तथा पति के कुल की स्त्रियों ( कुटुम्बी स्त्रियों ) से जो धन आया हो वह अन्वाधेय है ॥ ८९ ॥ एवं पञ्चविधं प्रोक्तं खोधनं सर्वसम्मतम् । न केनापिकदा ग्राह्यं दुर्भिक्षा पद्वृषाहते ॥ ८० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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