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________________ अर्थ - भर्ता के समान वह कुलीन स्त्री किसी श्रेष्ठ गोत्र में पैदा हुए पुत्र को लेकर पति की गद्दी पर नियुक्त करे । उसके पति के लिए उसकी सास को गोद लेने की आज्ञा नहीं है ।। ७५ ।। शक्ता पुत्रवधूरेव व्ययं कुतु च सर्वथा । न श्वश्वाश्चाधिकारोऽत्र जैनशास्त्रानुसारतः ।। ७६ ।। -- अर्थ - खर्च करने का अधिकार भी सर्वथा पुत्र की वधू को ही है । किन्तु जैन- सिद्धान्त के अनुसार उसकी सास को नहीं है ।। ७६ ।। कुर्यात्पुत्रवधूः सेवां श्वश्वोः पतिरिव स्वयम् | सापि धर्मे व्ययं त्विच्छेद्दद्यात्पुत्रवधूर्वसु ॥ ७७ ॥ अर्थ — उसको चाहिए कि जिस प्रकार उसका पति सेवा करता था उसी प्रकार श्वश्रू ( सास ) की सेवा करे । यदि सास को धर्म - कार्य करने की इच्छा हो तो उसको धन भी दे ॥ ७७ ॥ औरसा दत्तको मुख्यौ क्रीतसौतसहोदराः । तथैवोपनतश्चैव इमे गया जिनागमे ॥ ७८ ॥ हैं । अर्थ -- जैन शास्त्र के अनुसार पुत्रों में औरस और दत्तक मुख्य और क्रोत, सौत, सहोदर और उपनत गौय हैं ॥ ७८ ॥ दायादाः पिण्डदाश्चैव इतरे नाधिकारिणः । औरसः स्वस्त्रियां जातः प्रीत्या दत्तश्च दत्तकः || ७८ || अर्थ - यही दायाद हैं और पिण्डदान कर सकते हैं (अर्थात् नस्ल चला सकते हैं ) । इनके अतिरिक्त और कोई न दायाद हैं और न नस्ल चला सकते हैं। जो अपनी स्त्री से उत्पन्न हुआ हो वह औरस है; जो प्रीतिपूर्वक गोद दिया गया हो वह दत्तक है ॥ ७६ ॥ द्रव्यं दत्वा गृहीता यः स क्रीतः प्रोच्यते बुधैः । सौश्च पुत्रतनुजा लघुभ्राता सहोदरः ॥ ८० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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