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समय में होती थी। जीवाजीवाभिगम ( ३, पत्र २८१ ) में वेसमारण को यक्षों का अधिपति कहा गया है और उन्हें उत्तर दिशा का अधिपति बताया गया है।
नागमह जैन-ग्रन्थों में कथा आती है, अष्टापद पर ऋषभदेव भगवान् के निर्वाण के बाद प्रथम चक्रकर्ती भरत ने वहाँ मन्दिर आदि बनवाये । कालान्तर में द्वितीय चक्रवर्ती सगर के जह्न आदि ६० हजार पुत्र एक बार भ्रमण करते हुए अष्टापद गये। वहाँ मन्दिरों की रक्षा के विचार से उन लोगों ने दण्डरत्न से पर्वत के चारों ओर खाई खोद दी। और उसे गंगा के जल से भर दिया। जब गंगा का जल नागकुमारों के घर में पहुँचा, तो दृष्टि विष, सों ने नागकुमार की आज्ञा से सगर के पुत्रों को भस्म कर दिया ।
कुछ समय बाद गंगा पड़ोस के गाँवों में उपद्रव करने लगी। इसकी सूचना मिलते ही, सगर ने अपने पौत्र भगीरथ' को गंगा का जल समुद्र में गिराने को भेजा । अष्टापद पर पहुँच कर भगीरथ ने नागों की पूजा की और उनसे अनुमति लेकर गंगा का जल समुद्र तक ले गये। यह नागपूजा का प्रारम्भ था। उत्तराध्ययन अध्याय १८, गाथा ३५ की भावविजय की टीका में आता है :
नागपूजां ततः कृत्वा दण्डरत्नेन जल जः । नीत्वा सुपर्व सरितं पूर्वाब्धावुदतीरयत ॥६६॥ भगीरथो भोगिपूजा तत्रापि विधिवत् व्यघात ।
गंगा सागर संगाख्यं तत्तीर्थ पप्रथे ततः ॥६॥ ऐसी ही कथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व २, सर्ग ५-७ में तथा वसुदेवहिंडी पृष्ठ ३०४-३०५ में भी आयी है। १-डाक्टर जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी पुस्तक 'लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया'
पृष्ठ २१६ पर भगीरथ को भरत का पौत्र लिखा है। यह उनकी
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