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(३२८) जिस तरह 'अधनः' (निर्धन) कहने से विद्यमान देवदत्त के ही धन-निषेध का विधान किया जाता है, उसी तरह इस श्रुति में 'अशरीर' के व्यवहार से विद्यमान जीव के देह के अभाव की प्रतीति होती है । 'न' को निषेधादि होने से, उससे भिन्न और उसके सदृश, वस्तु को ही प्रतीति होती है ! अतः अशरीर पद से जीव ही लिया जा सकता है, खरशृंग नहीं। . "इस श्रुति का एक अर्थ यह है कि इस लोक के अग्नभाग में विद्यमान को सुख-दुःख स्पर्श करते हैं और उसमें प्रयुक्त 'वा' से यह भी स्पष्ट है कि देहधारी होने पर भी वितराग योगी को सुख-दुःख विशेष स्पर्श नहीं करते।
"और, इस श्रुति में 'अथवा' अर्थ में और 'वाव' यह निपात भी 'अथवा' के अर्थ में है । अतः इसका अर्थ यह होगा कि अशरीर होने पर मोक्षावस्था में विद्यमान जीव को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते और शरीरधारी होने पर भी वीतराग को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते । और, इस श्रुति में 'वावसन्तम्' में 'वाव' एक खंड है । 'अव' धातु का अर्थ 'ज्ञान' भी होता है । अतः इसका अर्थ यह होगा कि-'हे सोम्य ! तुम इस तरह से समझो कि शरीररहित मुक्तावस्था में विद्यमान अथवा ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट विद्यमान जीव को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते । 'वा' शब्द से सशरीर वीतराग योग को भी सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते ।।
"इस श्रुति में है 'अशरीरं वावसंतम्' यहाँ 'अकार' के लुप्त होने से न बसन्तम्वसन्तं क्वाप्य तिष्ठन्तम् ' ऐसी व्याख्या करने से यह अर्थ सिद्ध होता है, मुक्त अवस्था में जीव नहीं रहता और जीव के असत् होने से ही उसे प्रिय और अप्रिय स्पर्श नहीं करते । पर, तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है । क्योंकि, इस श्रुति में अशरीर पद आया है 'न विद्यते शरीरं यस्य' इस तरह पर्युदास-निषेध होने से मुक्त अवस्था में जीव विद्यमान है, यही संगत होगा। दूसरी बात यह कि 'स्पृषतः'---यहाँ 'स्पर्श' विशेषण भी विद्यमान वस्तु में ही लागू हो सकता है। यदि जीव खर-विषारण की तरह असत् हो, तो उसके स्पर्श करने की बात पूर्णत: असंगत हो जायेगी।
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