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(३२५)
" द्रव्यत्व और अमूर्तत्व की तरह स्वभाव और जाति से एक दम विपरीत अन्य जाति को आत्मा प्राप्त नहीं कर सकती । यह बात वैसे ही है, जैसे आकाश जीवत्व को प्राप्त नहीं करता ।
"इंद्रियाँ मूर्त होने से घट की तरह उपलब्धिवाली नहीं होतीं । इन्द्रियाँ तो उपलब्धि के द्वार हैं । उपलब्धि वाला तो जीव होता है । पाँच गवाक्षों से ज्ञान करनेवाला, जिस तरह उन पाँचों से भिन्न है, उसी तरह आत्मा भी इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियों के विनाश होने पर भी, वह स्मरण करता है । इन्द्रियों के व्यापार होने पर भी, अनन्यमनस्कता आदि के कारण कभी उपलब्धि नहीं होती है । अतः आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है ।
"जीव ज्ञानरहित नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान ही उसका स्वरूप है। ऐसी स्थिति में जैसे मूर्ति के बिला अणु नहीं होता, उसी तरह ज्ञान के बिला जीव भी नहीं हो सकता । अतः तुम्हारा यह कथन " अस्ति चासौ मुक्तौ जीवः अथ च स ज्ञानरहितः " विरुद्ध है ।
"तुम पूछोगे कि, वह जीव ज्ञान- स्वरूप है, इसका निश्चय कैसे कर सकते हैं । इसका उत्तर यह है कि अपने देह में प्रत्यक्षानुभव से ही जीव ज्ञानस्वरूप जाना जा सकता है । प्रवृत्ति - निवृत्ति आदि हेतु से परदेह में भी जीव ज्ञानस्वरूप जाना जा सकता है ।
"इन्द्रियवाला जीव अंशतः आवरण-क्षय होने पर ज्ञानयुक्त होता है, तो अनिन्द्रिय जीव के सभी आवरणों के क्षय होने पर वह शुद्धतर अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानप्रकाशयुक्त माना जा सकता है - यह बात ठीक वैसी है, जिस तरह समस्त अभ्रावरण के विनाश होने पर सूर्य सम्पूर्णमय होते हैं । अतः प्रकाशमयत्व के होने से आत्मा में ज्ञान का अभाव नहीं माना जा सकता ।
"इसी तरह जीव इन्द्रियरूप छिद्रों के द्वारा प्रकाश को देने से छिद्रावरण युक्त दीप के समान कुछ प्रकाश करता हुआ प्रकाशमय माना जाता है । और, मुक्तात्मा सभी आवरणों के विनाश होने से, घर से बाहर निकले हुए मनुष्य और आवरण से रहित दीप के समान अत्यन्त अधिक प्रकाशमय होता है ।
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