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(३१७)
अनुरूप कर्म के प्रकर्ष से होता है; क्योंकि पीछे वेदना प्रकर्ष का अनुभव रूप होने से, जैसे स्वानुरूप कर्म प्रकर्षजनित सौख्य प्रकर्ष का अनुभव !
"बाह्य साधन के प्रकर्ष के कारण यह इस रूप में है । अन्यथा उसे बाह्य अथवा विपरीत साधन-बल की आवश्यकता न होती ।
"देह मूर्त होने से, पुण्योत्कर्ष की तरह अपचय कृत नहीं है । पुण्यापचय मात्र से देह को उत्पन्न मानें तो वह हीनतर और शुभ ही होगा । महानु और अशुभतर कैसे होगा ?
"वही (तर्क) विपरीत रूप में सर्व पाप मानने वालों के साथ दिया जा सकता है । कारण के अभाव होने से संकीर्ण स्वभाव पुण्य-पापात्मक कर्म नहीं माना जा सकता ।
"कर्म योग निमित्त होता है । और, वह योग एक समय में शुभ अथवा अशुभ हो सकता है । लेकिन, वह उभयरूप कभी नहीं होता । इस प्रकार कर्म को भी मानना चाहिए ।
" मन, वाक् और काया के योग शुभ-अशुभ एक समय में दिखलायी पड़ते हैं । यह मिश्रभाव द्रव्य में होता है - भावकरण में नहीं ।
"ध्यान या तो शुभ होता है, या अशुभ | मिश्र कभी नहीं होता, क्योंकि ध्यान के बाद लेश्या शुभ या अशुभ ही होती है । इसी प्रकार कर्म भी या शुभ होगा या अशुभ होगा ।
" पूर्वगृहीत कर्म - परिणाम वश से सम्यक् मिथ्यात्व पुंजरूपता को प्राप्त करायेगा अथवा समकत्व अमिथ्यात्व को प्राप्त करायेगा । ग्रहण - काल में फिर पुण्य-पाप-रूप संकीर्ण - स्वभाव कर्म नहीं बाँधता और न तो एक को अपर
रूपता प्राप्त कराता है ।
“आयुष्क दर्शनमोह और चरित्रमोह को छोड़कर अतिरिक्त प्रकृतियों को उत्तर प्रकृति रूपों का संक्रम भाज्य है ।
" जिसके शुभ वर्णादि गुरण होते हैं और जिसका शुभ परिणाम होता है, उसे पुण्य कहा जाता है । जो इस पुण्य से विपरीत है, वह पाप है । दोनों ही न तो बहुत बड़े हैं और न बहुत सूक्ष्म हैं ।
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