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(३१२) का ज्ञान होता है, उसी तरह अन्य निमित्त से इन्द्रिय जीवात्मा के ज्ञान में निमित्त मात्र है।
"केवल-ज्ञान मनः-पर्याय-ज्ञान, और अवधिज्ञान से रहित आत्मा के सभी ज्ञान अनुमान मात्र ही हैं। वस्तु के साक्षात्कार करने से, केवलादि तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष माने जाते हैं । नरक को सिद्ध करने में, जब प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाण हैं, तब नारकों का अस्तित्व न मानना ठीक नहीं है । ___ "प्रकृष्ट फल के भोगने वालों को जिस तरह 'देव' कहते हैं, उसी तरह प्रकृष्ट पाप के फल को भोगने वाले को 'नारकी' कहा जा सकता है । यदि तुम्हारी ऐसी मति हो कि जो अत्यन्त दु:खी हैं, उन तिर्यंच और पक्षियों को ही नारकी कहा जाये तो यह ठीक नहीं होगा; क्योंकि जिस तरह देवता लोग प्रकृष्ट पुण्य फल का उपभोग करने वाले होते हैं, उस तरह प्रकृष्ट पाप के फल प्रकृष्ट दुःख के भोक्ता भी होंगे ही। ___ "हे अकम्पित ! मेरा वचन होने से, अन्य बातों की तरह इस बात को भी सत्य मानो। तुम जिसे सर्वज्ञ मानते हो और उनके वचन को जिस रूप में तुम सत्य मानते हो उसी प्रकार मेरे वचन को भी सत्य मानों; क्योंकि मैं भी सर्वज्ञ हूँ।
___ "मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सत्य अव्यभिचारी है; क्योंकि मैं भय, राग, द्वेष, मोह आदि से मुक्त हूँ । इसलिए तुम मेरे वचन को ज्ञायक मध्यस्थ की तरह सत्य समझो।
"तुम पूछ सकते हो कि आपको सर्वज्ञ क्यों मानें, तो इसका उत्तर यह है कि मैं समस्त शंकाओं का निवारण करता हूँ और भय, राग आदि दोषों से मुक्त हूँ।"
'इस प्रकार शंका के निवारण हो जाने पर अपने ३०० शिष्यों के साथ उन्होंने दीक्षा ले सी।
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