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(२६७)
" हे सुधर्मा ! पुद्गल मय कर्म के परिणाम को ही स्वाभाव कहते हों तो भी जगत का कारण वह स्वभाव विचित्र ही होगा । ऐसा कहें तो कोई दोष नहीं है । मैं भी इसे मानता ही हूँ; किन्तु मेरा यह कहना है कि वह स्वभाव सर्वदा सदृश नहीं होता ।
क्योंकि सभी किन्हीं उत्तर
" हे सुधर्मा ! आप परभव को एक कैसे कह सकते हैं; वस्तुएँ किन्हीं पूर्व - पर्यायों से प्रत्येक क्षरण में उत्पन्न होती हैं, पर्यायों से नष्ट नहीं होती हैं और किन्हीं पर्यायों से तद्वस्थ रहती हैं । ऐसा होने पर वह : वस्तु आत्मा के पूर्व - पूर्व धर्मों से उत्तर-उत्तर धर्मो के सदृश्य नहीं हैं तो फिर अन्य वस्तुओं की बात क्या ? सामान्य धर्मों से तो सभी त्रिभुवन समान हैं ?
" इस भव में ऐसा कौन है, जो सर्वथा सदृश्य ही है अथवा सर्वथा असदृश्य ही है ? क्योंकि सभी वस्तु सदृशासदृश्य है और नित्यानित्य है ।
" जिस तरह इस लोक में युवा अपने भूत-भविष्य बाल-वृद्धादि पर्यायों से सर्वथा समान नहीं हैं; और सत्तादिरूप सामान्य धर्म से सब समान हैं; उसी तरह परलोक में जीव भी अपने अतीत अनागत धर्मों को लेकर भिन्न और सत्तादि सामान्य धर्मों को लेकर सदृश्य माना जा सकता हैं ।
मनुष्य मर कर देवत्व को प्राप्त होता हुआ सत्तादि पर्याय से तीनों जगत का सादृश्य है और देवत्व आदि धर्मो को लेकर विसादृश्य है । इसलिए निश्चित रूप से कहीं भी सादृश्यता नहीं है । इसी रूप में नित्यानित्य की भी बात माननी चाहिए ।
"पूर्ण सादृश्यता के फलस्वरूप उत्कर्ष और अपकर्ष की कहीं गुंजाइश न रहेगी । यहाँ तक कि उसी कोटि में भी । और, दानादि का फल वृथा होगा ।
"श्रृगालो वै एष जायते" आदि वेदवाक्य और वेद - विहित स्वर्गीय फल
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