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(२८६) जिस तरह ह्रस्व का विनाश माना जाता है, उसी तरह दीर्घ का भी सर्वविनाश माना जायेगा; क्योंकि दीर्घ-सत्ता को ह्रस्वसत्ता की अपेक्षा होती है। लेकिन, ह्रस्वाभाव में दीर्घ का विनाश देखा नहीं जाता, इससे यह निश्चय होता है कि, घटादि पदार्थों के सत्ता-रूपादि धर्म अनन्यापेक्ष हैं। यदि यह सिद्ध है तो शून्यता नहीं रहती।
"अपेक्षण, अपेक्षक, अपेक्षणीय इनकी अपेक्षा किये बिना, ह्रस्वादि को दीर्घादि की अपेक्षा नहीं होती। यदि इनको स्वीकार कर लें, तो शून्यता नाम की कोई चीज नहीं रह जायेगी। कुछ वस्तुएँ स्वतः हैं, जैसे जलद; कुछ वस्तुएँ परतः हैं, जैसे घट; कुछ वस्तुओं की उभय स्थिति है, जैसे पुरुष और कुछ वस्तुएँ नित्य सिद्ध हैं जैसे आकाश। ये सब बातें व्यवहार-नय की अपेक्षा से मानी जाती हैं। बहिनिमित के आश्रय से निश्चय से सभी वस्तुएँ स्वतः होती है। पर, जिस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है, वह बाह्य निमित्त से भी उत्पादित नहीं हो सकती, जैसे खर-विषाएग!
"घट और अस्तित्व में एकता है अथवा अनेकता? जैसे घट और अस्तित्व में एकता है अथवा अनेकता; इसी तरह एकत्व और अनेकत्व रूप पर्याय मात्र की ही चिंता की जाती है। इससे उन दोनों का अभाव सिद्ध नहीं होता है । नहीं तो, यह बात खरशृंग और वंध्यापुत्र में एकत्व-अनेकत्व के साथ क्यों नहीं लागू होती।
“घट और शून्यता इन दोनों में भेद है अथवा अभेद । यदि भेद मानते हो तो, हे सौम्य ! वह शून्यता घट के अतिरिक्त और क्या है ? यदि अभेद मानते हो तो घट और शून्यता एक होने से वह शून्यता घट ही है-न कि शून्यता-नामका घट का कोई अतिरिक्त धर्म !
“यदि विज्ञान और वचन एक माना जाये, तो वस्तु की अस्तिता सिद्ध होने से शून्यता नहीं मानी जा सकती और भेद मानने पर विज्ञान और वचन को न जाननेवाला अज्ञानी और निर्वचनवादी शून्यता का साधन कैसे कर सकता है ?
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