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(२८१) स्थित (द्रव्यरूपतया) सम्भूत (उत्तर पर्यायेण सम्भूत) च्युत (पूर्व पर्यायेणच्युत) ऐसा विज्ञान मानने से ये सब दोष न होंगे। ऐसा होने पर उत्पाद्, व्यय, ध्रौव्ययुक्त शरीर से अन्य-आत्मा को समस्त व्यवहार की सिद्धि के लिए मानों।
और, उसके विचित्र आवरण के क्षयोपशम होने से चित्र रूप से क्षणिक कालान्तर वृत्ति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय आदि मति विधान होते हैं। और, केवल-ज्ञान तो एक ही केवल ज्ञान के आवरण के क्षय होने पर होता है। समान ज्ञान के रूप में मतिज्ञानादि की शृंखला नित्य सनातन है। सर्वावरण के नाश होने पर जो केवल-ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनंत और अविकल्प है। __ यदि जीव शरीर से भिन्न है, तो घट में प्रवेश करते समय अथवा निकलते समय चटक (गौरैया)-सा दिखलायी क्यों नहीं पड़ता? (इस प्रश्न के उत्तर के रूप में भगवान् ने कहा ) हे गौतम ! अनुपलब्धि के दो प्रकार हैं-(१) खरशृंग-सरीखी ऐसी वस्तु जो है ही नहीं, (२) दूर होने से कोई चीज नहीं देखी जाती, जैसे स्वर्गादि । और, जीव कर्मानुगत है, वह सूक्ष्म और अमूर्त है। इसलिए उसकी अनुपलब्धि नहीं माननी चाहिए ।
यदि जीव और देह एक ही है, तो वेदों द्वारा निश्चित मोक्ष की कामना से किये जानेवाले अग्निहोत्रादि कर्म सब व्यर्थ सिद्ध हो जायेंगे। __'विज्ञानघन' आदि वेदवाक्य का सही अर्थ तुम्हें नहीं मालूम है । इसलिए, तुम सोचते हो कि शरीर तथा जीव एक ही है। लेकिन, उसका सही अर्थ इस प्रकार है।
जब उनकी शंका मिट गयी तो तीसरे गणधर ने भी अपने ५०० शिष्यों सहित दीक्षा ले ली।
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