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________________ (२७२) "यदि ऐसा न माना जायेगा तो, बिना प्रयत्न के सब के सब मुक्त हो जायेंगे । और, अदृष्ट फल वाली क्रियाओं को करने वाला ही अधिक क्लेश वाला हो जायेगा | क्योंकि, दानादि क्रिया को करने वाले अदृष्ट फल के साथ सम्बन्ध करेंगे, तो पीछे जन्मान्तर में उनके फल का अनुभव करते हुए फिर भी दानादि क्रिया में प्रवृत्त होंगे । और फिर उसके अधिक फल का अनुभव करने पर फिर दानादि क्रिया में प्रवृत्त होंगे । उससे उनका संसार अनंत होगा । "इस जगत् में बहुतर लोग अनिष्ट भोगों का भोग करते हैं । पर, यह भी निश्चित है कि उसमें कोई अदृष्ट और अनिष्ट फल वाला कार्य कदापि नहीं करना चाहता । अतः, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हर क्रिया का एक अदृष्ट फल भी निश्चित् रूप में होता है । और, करने वाले के अदृष्ट के प्रभाव से उसका फल भी अनिश्चित देखा जाता है । "अतः फल से ही ( कार्यत्व हेतु ) कर्म को पहले ही सिद्ध कर दिया गया है । जैसे, घट के परमाणु कारण होते हैं, उसी तरह फल का भी कोई कारण होगा । वह कारण 'कर्म' ही है । लेकिन, वह फल क्रिया से भिन्न होता है; क्योंकि कार्य-कारण में भेद मानना आवश्यक है । " परपक्षवाला कहेगा कि, काम के मूर्त होने से, उसका कारण परमाणु भी मूर्त होते हैं। “जिसके सम्बन्ध होने से सुखादि का अनुभव होता है, वह मूर्त होता " है | अतः कर्म के सम्बन्ध से सुखादि का अनुभव होने से, कर्म मूर्त माना जायेगा -- जैसे कि आहार । " जिसके सम्बन्ध होने से वेदना का उद्भव होता है, वह भी मूर्त माना जाता है, जैसे अग्नि । कर्म के सम्बन्ध से वेदना की उत्पत्ति होती है | अतः कर्म मूर्त माना जायेगा । "जिसको बाह्य वस्तु के द्वारा बल प्राप्त होता है, वह भी मूर्त माना जाता है - जिस प्रकार तेल आदि से पुष्ट किया गया घड़ा । मिथ्या तत्त्वादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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