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________________ [१] इन्द्रभूति इन्द्रभूति को देखते ही भगवान् ने कहा-“हे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति, तुम्हें जीव आत्मा के सम्बंध में सन्देह है; क्योंकि घट के समान जीव प्रत्यक्ष रूप से गृहीत नहीं होता है । तुम्हारी धारणा है कि जो अत्यन्त अप्रत्यक्ष है, वह इस लोक में आकाश-पुष्प के समान है ही नहीं। वह आत्मा अनुमान गम्य नहीं है। क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्ष पूर्वक ही होता है । अनुमान लिंग (हेतु) और लिंगी (साध्य) इन दोनों के पूर्व उपलब्ध व्याप्य-व्यापक-भाव-सम्बंध के स्मरण से होता है । "जीव का लिंग के साथ सम्बंध नहीं देखा गया है। जिससे कि फिर से स्मरण करने वाले को उस लिंग के दर्शन से जीव की सम्यक प्रतीत हो । "यह तो आगम गम्य भी नहीं है। क्योंकि आगम भी अनुमान से भिन्न नहीं है। आगम जिनके वचन हैं, उनको भी जीव प्रत्यक्ष नहीं हुआ है । "और, आगम भी परस्पर-विरुद्ध है । अतः इस कारण तुम्हारी १–यहाँ टीकाकार ने स्पष्ट करते हुए शास्त्रों के निम्नलिखित उद्धरण दिये हैं। (अ) नास्तिक कहते हैं :"एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्र वृक पदं पश्य यद् वदन्ति बहुश्रुता ।।" - (आ) भट्ट का वचन है: __ "विज्ञान घन एवै तेभ्यो भूतेम्यो समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न च प्रेत्यसज्ज्ञा स्ति।" Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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