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________________ (२५८) ज्यों-ज्यों कुआँ खोदता जाता है, त्यों-त्यों नीचे जाता रहता है, उसी प्रकार अपने कर्म से विवेकपरिवर्जित प्राणी अधोगति को प्राप्त होता है और अपने ही कर्म से महल बनानेवाले के समान मानव ऊर्ध्व गति भी प्राप्त करता है । कर्म के बन्धन के कारण प्राणी प्राणातिपात ( जीव - हिंसा) नहीं करता और अपने प्राण के समान दूसरों के प्राण की रक्षा करने में तत्पर रहता है । पर - पीड़ा को आत्म- पीड़ा के समान परिहरण करनेवाला व्यक्ति झूठ नहीं बोलता, सत्य बोलता है । मनुष्य के बहिः प्राण लेने के समान मनुष्य अदत्त द्रव्य नहीं लेता; क्योंकि अर्थ - हरण उसके वध के समान है। बहुजीवोपमर्दक मैथुन का सेवन नहीं करता । प्राज्ञ पुरुष परब्रह्म प्राप्ति के लिए, ब्रह्मचर्यं धारण करते हैं । परिग्रह को धारण नहीं करना चाहिए; क्योंकि अधिक बोझ से दबे बैल के समान वह व्यक्ति अधोगति को प्राप्त होता है । इस प्रारणातिपात आदि के दो भेद हैं । जो उनमें सूक्ष्म का परित्याग ( साधु-धर्म का पालन ) नहीं कर करता, तो उसे सूक्ष्म के त्याग में अनुराग करके बादर का त्याग ( श्रावक-धर्म का पालन ) तो अवश्य करना चाहिए । ' देवगणों को देखकर पहले ब्राह्मणों के मन में विचार हुआ कि उनके यज्ञ के प्रभाव से देवगरण वहाँ आये हैं । पर, देवताओं को यज्ञ मंडप छोड़कर -- जिधर महावीर स्वामी थे—उधर जाते देखकर ब्राह्मणों को दुःख हुआ । जब वहाँ यह समाचार पहुँचा कि वे देवतागण सर्वज्ञ भगवान् महावीर की वंदना करने वहाँ उपस्थित हुए हैं तो इन्द्रभूति के मन में विचार हुआ कि "मेरे सर्वज्ञ होते हुए यह दूसरा कौन सर्वज्ञ यहाँ आ उपस्थित हुआ । मूर्ख मनुष्य को तो ठगा जा सकता है; पर इसने तो देवताओं को भी ठग लिया । तभी तो ये देवगण मुझ सरीखे सर्वज्ञ का त्याग करके उस नये सर्वज्ञ के पास जा रहे हैं ।” फिर, इन्द्रभूति को स्वयं देवताओं पर ही शंका होने लगी । उसने सोचा- "सम्भव है, कि जैसा वह सर्वज्ञ हो, उसी प्रकार के ये देव भी हों । परन्तु, कुछ भी हो, जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती, उसी भाँति हम दो सर्वज्ञ भी नहीं रह सकते । " f १ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ५ श्लोक ३६-४७, पत्र ५६मू १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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