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________________ (२०६) लोहार्गला में उस समय जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था। एक पड़ोसी राज्य के साथ उसकी अनबन चल रही थी। अतः उसके राज्य के सभी अधिकारी बहुत ही सतर्क रहते थे। और, शक पड़ने पर किसी को भी पकड़ लेते थे। उन्हीं दिनों में भगवान् महावीर और गोशाला वहाँ आये। पहरेदारों ने उन दोनों का परिचय पूछा; पर उनको कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः पहरेदारों ने भगवान और गोशाला दोनों को पकड़ कर राजा के पास भेज दिया। जिस समय भगवान् महावीर और गोशाला राजसभा में लाये गये, उस समय अस्थिक ग्राम का वासी नैमित्तिक उत्पल भी वहाँ उपस्थित था। भगवान् को देख कर उत्पल खड़ा हो गया और हाथ जोड़ कर राजा से बोला-"हे राजन् ! यह राजा सिद्धार्थ के पुत्र धर्म-चक्रवर्ती तीर्थंकर भगवान महावीर हैं । यह गुप्तचर नीं हैं । चक्रवर्ती के लक्षणों को भी जो मात करे, ऐसे इनके पाद-लक्षणों को तो देखिये ।" जितशत्रु ने उत्पल के कथन पर अविलम्ब उनके बंधन खोल दिये और आदरपूर्वक सत्कार करके अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। लोहार्गला से भगवान् ने पुरिमताल' की ओर विहार किया और नगर के बाहर शकटमुख-नामक उद्यान में कुछ समय तक ध्यान में स्थिर रहे। १-जैन-ग्रन्थों में प्रयाग का प्राचीन नाम पुरिमताल मिलता है। यहीं वटवृक्ष के नीचे शकटमुख नामक उद्यान में आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन प्राप्त हुए थे (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक, वक्ष० २, सूत्र ३१, पत्र १४६-२) यहाँ द्वितीय चक्रवर्ती सगर ने संगम पर राजसूययज्ञ किया था। उस समय कोई उनकी यज्ञ-सामग्री को गंगा में फेंकने लगा। उसकी रक्षा के लिए ऋषभदेव भगवान् की मूर्ति स्थापित की गयी। फिर यज्ञ हुआ। पर्वतक नामक एक कपटी ब्राह्मण ने चक्रवर्ती सगर पर सेनमुखी आदि विद्याएं फेंकी। और, वहाँ सोमवल्ली छेदकर सोमपान किया। तब से लोग उस स्थान को दिति-प्रयाग कहने लगे। जो नहीं जानते थे, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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