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________________ आचार्यश्री बम्बई आये थे, उसे पूरा होने का कोई लक्षण दिखलायी नहीं पड़ा। इतना ही नहीं, आचार्यश्री को यह भी आभास हुआ कि काम करने की सुविधा को कौन कहे, उन्हें परस्पर की गुटबंदी में खींचा जा रहा है। ___अतः आचार्यश्री ने अपना काम स्वतन्त्र रूप से करने का निश्चय किया। उन्होंने गुजराती 'वैशाली' प्रकाशित करायी तथा हिन्दी 'वैशाली' का दूसरा संस्करण प्रकाशित कराया। इन ग्रंथों की अनुसंधान-पत्रिकाओं, रेडियो तथा विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उसके बाद आचार्यश्री ने तीर्थंकर महावीर में हाथ लगाया । इस बृहत् अनुसंधान के लिए कितनी पुस्तकें, कितना धन और कितना परिश्रम वांछनीय था, यह पुस्तक देख कर पाठक स्वयं अनुमान लगा ले सकते हैं। इस दृष्टि से जिन लोगों ने हमारी सहायता की, उनकी सूची हमने दे दी है। इस बीच तीन बार आचार्यश्री अत्यन्त रुग्ण भी हुए। पर, इससे न तो उन्होंने हिम्मत हारी और न एक दिन के लिए अपना काम ही बन्द किया। संक्षेप में यह प्रस्तुत पुस्तक का इतिहास है । प्रस्तुत पुस्तक में हमें कितने ही लोगों से सहायता मिली है। उनके प्रति कृतज्ञता-प्रकट न करना वस्तुतः कृतघ्नता होगी। श्री मोतीशा जैन-ट्रस्ट के (भायखाला, बम्बई) समस्त ट्रस्टियों ने हमारी जिस प्रकार हृदय से सहायता की वह स्तुत्य है । यदि उनकी सहृदयता में किंचित कमी होती, तो शायद प्रस्तुत पुस्तक इतनी जल्दी आपके हाथों में न पहुंच पाती। धन्यवाद के अधिकारी लोगों में हम उन लोगों के भी हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने काफी प्रतियों के लिए ग्राहक बन कर हमें इस प्रकाशन के लिए उत्साहित किया। ऐसे लोगों में हम लाला शादीलाल जैन ( अमृतसर), श्री वाडीलाल मनसुखलाल पारेख, श्री पोपटलाल भीखाभाई झवेरी, श्री अमृतलाल कालिदास दोशी, श्री माणिकलाल सरूपचंद्र शाह, श्री मूलचन्द वाडीलाल शाह, श्री जयसिंहभाई उगरचन्द्र अहमदाबाद, श्री कपूरचन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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