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________________ (१६८) सीनता किस काम की ? एक पक्षी भी अपने घोसले की रक्षा में तत्पर · रहता है । आप क्षत्रियकुमार होकर क्या अपनी झोपड़ी की भी रक्षा नहीं • कर सकते ?" आश्रमवासियों के व्यवहार से भगवान् महावीर का दिल वहाँ से उठ गया और उन्होंने मन में समझा कि, अब वहाँ रहना उचित नहीं है। क्योंकि उससे आश्रमवासियों को दुःख होगा। और, मैं अप्रीति का कारण बनूंगा। अतः, वर्षाऋतु १५ दिन व्यतीत हो जाने पर भी, भगवान ने वहाँ से विहार किया और अस्थिग्राम में जाकर चौमासा व्यतीत किया। और, उस समय भगवान ने पाँच प्रकार की प्रतिज्ञा ली: ना प्रीतिमद्गृहे वासः स्थेयं प्रतिमया सह । न गेहिविनयं कार्यो मौनं पाणौ च भोजनम् ॥ (१) अब से अप्रीतिकारक स्थान में कभी नहीं रहूँगा। (२) सदा ध्यान में लीन रहूँगा। (३) सदा मौन रखूगा-बोलूगा नहीं। (४) हाथ में भोजन करूँगा।। (५) और, गृहस्थों का विनय नहीं करूंगा। ( कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, पत्र २८८) वहाँ ( अस्थिकग्राय में ) गाँव के बाहर शूलपाणि यक्ष का मन्दिर था । वहाँ रहने के लिए भगवान् ने गाँव वालों की आज्ञा माँगी । तब लोगों ने कहा---'यह यक्ष महादुष्ट है और वह किसी को यहाँ ठहरने नहीं देता।" उस यक्ष की कहानी इस प्रकार है 'यहाँ पहले वर्धमान नामक एक गाँव था और पास ही वेगवती नामक नदी बहती थी। उसके दोनों किनारों पर कीचड़ था। बनदेव नामक एक व्यापारी उस कीचड़ वाले रास्ते से ५०० गाड़ियाँ लेकर आ रहा था । उसकी गाड़ियाँ कीचड़ में फंस गयीं । उसके पास एक बड़ा बलिष्ट बैल था। उसके द्वारा उस व्यापारी ने अपनी कुल गाड़ियाँ कीचड़ से बाहर निकलवायीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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