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दो शब्द
सन् १९३८ की बात है । आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि जी आगरा से विहार कर के कलकत्ते जा रहे थे और चातुर्मास बिताने के लिए रघुनाथपुर ( पुरुलिया) में ठहरे थे। मेरा मकान वहाँ से ४ मील दूर सिकराटांड नामक गाँव में है। मैं प्रायः आचार्यश्री के दर्शन के लिए रघुनाथपुर जाया करता था। शनैः शनैः परिचय बढ़ा और मुझे उनके सान्निध्य में रहने का अवसर . मिला। तब से निरन्तर मैं आचार्यश्री के साथ हूँ।
कलकत्ते से लौटकर शिवपुरी (ग्वालियर) जाते हुए, आचार्यश्री वैशाली गये। वहाँ तीन दिनों तक वे ठहरे । वहाँ उन्होंने निकटवर्ती क्षेत्रों का तथा भगवान् महावीर की जन्मभूमि का निरीक्षण किया।
शास्त्रों में वरिणत भगवान् महावीर के जन्म-स्थान की जो संगति वैशाली के निकटवर्ती स्थलों से बैठी, उसे देखकर आचार्यश्री के हृदय में इच्छा हुई कि भगवान् के मूल जन्म-स्थान का प्रचार विस्तृत पैमाने पर किया जाना चाहिए-जो पृथक-पृथक स्थापना-तीर्थों के स्थापित होने से विस्मृत-सा हो गया है । यह संतोष की बात है कि आचार्यश्री के उस प्रचार का यह फल हुआ कि अब जैनों में पढ़े-लिखे लोग महावीर के असली जन्मस्थान को जान गये और इस विस्मृत तीर्थ का उद्धार होने लगा है।
आचार्यश्री ने अपना वर्षावास उसके बाद क्रमशः शिवपुरी, लश्कर, दिल्ली, सनखतरा (जन्म-स्थान) में बिताया और वे फिर दिल्ली आये। .. दिल्ली आने पर सुविधा मिलते ही, उन्होंने अपनी 'वैशाली' नामक पुस्तक लिखी इस पुस्तक के सम्बन्ध में विख्यात पाश्चात्य विद्वान डा० टामस ने लिखा था
"अनुसंधान-कार्य करनेवाले लोगों के लिए यह पुस्तक एक आदर्श है।"
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