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समझौतेवादी विचारधारा से दूर रहने का यह फल हुआ कि जो जैनसंदर्भ ब्राह्मण-ग्रंथों में थे भी, उन्हें विकृत कर दिया गया। उदाहरण के लिए 'अर्हन्' शब्द लीजिए । हनुमन्नाटक में स्पष्ट आता है :
अर्ह नित्यथ जैनशासन रताः
-जैनशासन रत जिसको अर्हन्त कहकर (पूजते हैं)। यह अर्हन् शब्द ऋग्वेद में भी कई स्थलों पर आता है । यथा
अहं बिभर्षि सायकानि धन्वाह निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमन्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥
ऋग्वेद २।४।३३।१० पृष्ठ १७४ । अर्हन्तो ये सुदानवो नरो असामिशवसः। प्र यज्ञं यज्ञियेभ्यो दिवो अर्चा मरुद्भयः ॥
वही, पृष्ठ ३१३ । बाद के टीकाकारों ने हनुमन्नाटक-सरीखे संस्कृत-ग्रन्थ के संदर्भ के बावजूद और पूरे जैन-साहित्य में पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त होने के बावजूद 'अर्हन्' शब्द का अर्थ ही बदल दिया।
ऐसी ही विकृति अरिष्टनेमि शब्द के साथ भी की गयी। यजुर्वेद अध्याय ९ का २५-वां मंत्र (पृष्ठ ४३) है :
वाजस्य नु प्रसव आबभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्धमानोऽअस्मै स्वाहा । इस प्रकार उसी वेद में आता है :स्वस्ति नस्तार्योऽअरिष्टनेमिः
-अध्याय २५, मंत्र १६, पृष्ठ १४२ ॥ पर अरिष्टनेमि अथवा नेमि शब्द की भी टीकाएं बदल दी गयीं। ऐसा ही व्यवहार कितने ही अन्य शब्दों के साथ भी हुए। 'वर्द्धमान'
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