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- अर्थात् माणिक्य के पुत्र, लेखक और उत्साह का धर्मपूर्वक किया गया यह दान है आचार्य, उपाध्याय, माता-पिता और अपने से अनन्त कल्याण की प्राप्ति के लिए हो ।
महायान के इससे जो भी
परम अनुयायी पुण्य हो, वह
लेकर समस्त प्राणिमात्र के
स्तम्भ से ५० फुट पर ही रामकुण्ड अथवा मर्कटह्रद है, जिसके किनारे कूटागारशाला थी । इस कूटागारशाला में ही, बुद्ध ने आनन्द को अपने निर्वाण की सूचना दी थी । वहाँ खुदाई करने पर पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली एक मोटी दीवार पायी गयी है, जो कि पक्की ईंटों की है । इसकी ईंटें १५॥”Xε॥” X २" की हैं। दीवार के पश्चिमी छोर पर एक छोटे स्तूप के अवशेष पाये गये हैं । इस स्तूप की ईंटें इधर-उधर विखरी पड़ी थीं । इसमें ७। इंच व्यास की एक गोलाकार ईंट मिली थी, जिसका ऊपरी भाग गोल था । इसके बीच में एक चौकोर छेद था । कनिंघम का मत है कि यह स्तूप के शिखर की ईंट रही होगी । कोलुआ, बनिया और बसाढ़ से पश्चिम में 'न्योरी - नाला' नामक नदी का पुराना पाट बहुत दूर तक चला गया है । अब इसमें खेती होती है ।
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यहाँ जन श्रुति प्रसिद्ध है कि, प्राचीन वैशाली के चारों कोनों पर चार शिवलिङ्ग स्थापित थे । इसका आधार क्या है, इसे नहीं कहा जा सकता और इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है । उत्तर-पूर्वी 'महादेव' जो कूमनछपरागाछी में हैं, वास्तव में बुद्ध की मूर्ति हैं, जो चतुर्मुख है । उत्तरपश्चिम में एक संगमरमर का लिङ्ग बना है, जो बिलकुल आधुनिक है । इन दोनों को यहाँ की जनता बहुत भक्ति भाव से पूजता है ।
चीनी यात्रियों के काल में वैशाली
फाहियान और युआन च्वाङ् दोनों ही नें अपने यात्रा - ग्रंथों में वैशाली का उल्लेख किया है ।
फाहियान ने लिखा है: - " वैशाली नगर के उत्तर स्थित महावन में कूटागारविहार ( बुद्धदेव का निवास स्थान ) है | आनन्द का अर्द्धाङ्ग स्तूप है । इस
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