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प्रमाप्रमेयम्
[१.५०
कृतकत्वात् शब्दे अनित्यत्वं प्रसाध्यते चेत् आकाशसाधर्म्यात् अमूर्तत्यात् नित्यत्वपि प्रसाध्यते । इति प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिः । आकाशवैधर्म्यात् कृतकत्वात् शब्दे अनित्यत्वं प्रसाध्यते चेत् घटवैवर्थात् अमूर्तत्वात् नित्यत्वमपि साध्यत इति प्रत्यवस्थानं वैवसमा जातिः ॥ [ ५१. उत्कर्षापकर्षसमे ]
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दृष्टान्ते दृष्टस्यानिष्टधर्मस्य दाष्टन्ति योजनमुत्कर्षसमा जातिः । तदनिष्टधर्मनिवृत्ती पक्षस्य साध्यधर्मनिवृत्तिः अपकर्षसमा जातिः । तयोरुदाहरणम् । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदित्युक्ते घटे तावद -
वह तक है जैसे घट, इस अनुमान के प्रयोग करनेपर जातिवादी कहता हैघट के समान कृतक होने से शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाय तो आकाश के समान अमूर्त होने से शब्द नित्य भी सिद्ध किया जा सकता है । इस प्रकार के आक्षेप को साधर्म्यसमा जाति कहते हैं । यदि आकाश से भिन्न अर्थात कृतक होने से शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाय तो घट से भिन्न अर्थात अमूर्त होने से शब्द को नित्य भी सिद्ध किया जा सकता है । ऐसे आक्षेप को वैधर्म्यसमा जाति कहते हैं । ( ये दोनों आक्षेप जाति अर्थात झूठे दूषण हैं - वास्तविक दूषण नहीं हैं क्यों कि इन में अनुमान की मूलभूत व्याप्ति - जो कृतक होता है वह अनित्य होता है - को गलत सिद्ध नही किया है, केवल विरोधी उदाहरण ढूंढने की कोशिश की गई है, इस में शब्द को अमूर्त कहा है वह भी ठीक नही है ) । उत्कर्षसमा तथा अपकर्षसमा जाति
दृष्टान्त में कोई अनिष्ट धर्म ( साध्य के प्रतिकूल गुण ) देखा गया हो तो उसे दार्थन्त में ( साध्य में ) जोड देना यह उत्कर्षसमा जाति होती है। दृष्टान्त से अनिष्ट धर्म के हटाने पर पक्ष से साध्य गुणधर्म हटेगा ऐसा कहना अपकर्षसमा जाति होती है । इन दोनों के उदाहरण इस प्रकार हैं । शब्द अनित्य है क्यों कि वह कृतक है जैसे वट इस अनुमान के प्रस्तुत करने पर यह कहना कि वट में अनित्यता के साथ अश्रावणता ( सुना न जाना ) की व्याप्ति है ऐसा देखा गया है, यदि वट का अनित्यत्व यह व्याप्य शब्द में स्वीकार किया जाता है तो उसका व्यापक अश्रावणत्व भी स्वीकार किया जाना
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