SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ प्रमाप्रमेयम् [१.४०[४०. अन्वयदृष्टान्ताभासाः] दृष्टान्ताभासा अन्वये साध्यसाधनोभयविकला आश्रयहीनाप्रदर्शित-.. व्याप्तिविपरीतव्याप्तयश्च । व्यतिरेके साध्यसाधनोभयाव्यावृत्ता आश्रयहीनाप्रदर्शितव्याप्तिविपरीतव्यातयश्च। उदाहरणम् - नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् यद् यदमूत तत् तन्नित्यं यथेन्द्रियसुखम् इत्युक्ते साध्यविकलः। यथा परमाणुरिन्युक्ते साधनविकलः । यथा पट इत्युक्ते उभयविकलः । यथा खपुष्पमित्युक्ते आश्रयहीनः । आकाशवदित्युक्ते अप्रदर्शित-- व्याप्तिः । यन्नित्यं तमूत यथा व्योम इत्युक्ते विपरीतव्याप्तिकः ॥ अन्वयदृष्टान्ताभास अन्वय-दृष्टान्त के आभास छह प्रकार के हैं - साध्यविकल, साधनविकल, उभयविकल, आश्रयहीन. अप्रदर्शितव्याप्ति तथा विपरीतव्याप्ति । व्यतिरेक दृष्टान्त के आभास भी छह प्रकार के हैं - साध्याव्यावृत्त, साधनान्यावृत्त, उभयाव्यावृत्त, आश्रयहीन, अप्रदर्शितव्याप्ति, तथा विपरीतव्याप्ति । अन्वयदृष्टान्ताभासों के उदाहरण इस प्रकार हैं - शब्द नित्य है क्यों कि वह अमूर्त है, जो अमूर्त होता है वह नित्य होता है. जैसे इन्द्रियों से प्राप्त सुख है इस अनुमान में दृष्टान्त साध्यविकल है (नित्य होना यह साध्य इन्द्रियसुख इस दृष्टान्त में नहीं है) इसी अनुमान में परमाणु का उदाहरण साधनविकल होगा ( अमूर्त होना यह साधन परमाणु इस दृष्टान्त में नहीं है)। घट का दृष्टान्त उभयविकल होगा ( इस में नित्य होना यह साध्य और अमूर्त होना यह साधन दोनों नही हैं)। आकाशपुष्प का दृष्टान्त आश्रयहीन होगा ( आकाशपुष्प का अस्तित्व ही नहीं है अतः उस में साध्य या साधन नहीं हो सकते)। ( जो अमूर्त है वह नित्य होता है इस व्याप्ति को न बतलाते हुए केवल ) जैसे आकाश है यह कहा तो अप्रदर्शितव्याप्ति दृष्टान्ताभास होगा। जो नित्य है वह अमूर्त होता है जैसे आकाश है ऐसा कहा हो तो वह विपरीतव्याप्ति दृष्टान्ताभास होगा ( यहां जो अमूर्त होता है वह नित्य होता है ऐसी व्याप्ति बतलानी चाहिए क्यों कि नित्यत्व साध्य है, जो नित्य होता है वह अमूर्त होता है यह इस के उलटी व्याप्ति है अतः यह विपरीतन्याप्ति दृष्टान्ताभास है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy