SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ प्रमाप्रमेयम् वाद में सभापति, सभासद आदि नहीं होते जब कि जल्प में इन की व्यवस्था होती है । ग्रन्थों में बाद और जल्प की परिभाषाओं के बारे में यह मतभेद है, किन्तु व्यवहार में संभवतः वाद यह एक ही संज्ञा रूढ थी सांख्य और बौद्धों में वाद हुआ, वाद में विजयी हुए इस प्रकार के वर्णन तो मिलते हैं किन्तु उन में जल्प हुआ ऐसा वर्णन नही मिलता । बाद में भाग लेनेवाले चादी और प्रतिवादी कहलाते थे, किन्तु जल्पी या प्रतिजल्पी ये शब्द प्रयोग में नही आते थे । इस से यह सूचित होता है कि व्यवहार में जल्प शब्द का प्रयोग बहुत कम होता था । आचार्य ने इस विषय की लम्बी चर्चा की है जो कुछ हद तक शब्दबहु कही जा सकती है । वाद के लक्षण में पंचावयवोपपन्न इस विशेषण की उन को आलोचना ( प्रतिज्ञा आदि वाक्य शब्द हैं अतः वे अवयव नही हो सकते, अवयव तो भौतिक होते हैं) को गम्भीर मानना कठिन है (परि. ११२ ) । यह आक्षेप उन के पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ से लिया गया है क्यों कि वाचस्पति ने इस का उल्लेख किया है । दूसरे प्रकार से पांच अवयवों की जो गणना भावसेन ने उद्धृत की है (परि. ११४ ) वह न्यायसारटीका में प्राप्त होती है ३ । १. प्रमालक्ष्म श्लो. ५९ । समानलिङ्गिनां क्वापि मुमुक्षूणामविद्विषाम् । सन्देहापोह द्वादो जल्पस्त्वन्यत्र संमतः । श्लो. ६२ अत एवात्र नो युक्ताः स्थेया दण्डधरादयः | छलजात्यादयो दूरं निग्रहोऽपि न कश्चन || श्लो. ६३ वाद एव भवेज्जल्पः छलजात्यादयः परम् | अनुषज्यन्ते यथायोगं स्थेयदण्डधरादयः || २. न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका पृ. ५४ ननु यथा तन्तवः पटस्य समवायिकारणं किं तथैवैते प्रतिज्ञादयो वाक्यस्य । नो खलु गगनगुणा वर्णाः समवायिकारणतां प्रतिपद्यन्त इत्यत आह । वाक्यैकदेशा इति अवयवा इति अवयवाः न पुनः समवायिकारणम् । ३. पृष्ठ ४२ तथा स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणं साधनसमर्थनं दूषणसमर्थनं शब्ददोषवर्जन मित्येतैः पंचभिरवयवैरुपपन्नः कार्यों येनाभिमतसिद्धिः स्यात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy