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________________ तुलना और समीक्षा १४७ - खण्डन मुख्य अभिप्राय होता है, प्रकरणसम में दूसरा पक्ष उपस्थित करने का अभिप्राय होता है तथा उपपत्तिसम में निर्णय का अभाव बतलाने का अभिप्राय होता है। अविशेषसम तथा अनित्यसम को अभिन्न मानने का भी जयन्त ने खण्डन किया है। उन का कथन है कि अविशेषसम में अस्तित्व - के कारण सब पदार्थों में समानता बतलाई गई है तथा अनित्यसम में घट ' की समानता से सब पदार्थों में अनित्यत्व की समानता कल्पित की गई है, इस प्रकार इन दोनों में वर्णन के प्रकार का भेद है । निग्रहस्थान (परि० ७०-८४ ) वाद में पराजय होने के कारणों का बाईस निग्रहस्थानों का - जो वर्णन भावसेन ने किया है वह प्रायः शब्दशः न्यायसूत्र तथा उस की टीकाओं पर आधारित है । बौद्ध आचार्यों ने निग्रहस्थान के दो ही प्रकार माने हैं - ऐसा वाक्य" प्रयोग करना जो अपने पक्ष को सिद्ध न कर सके तथा ऐसी बातें उठाना जिन से प्रतिपक्ष दूषित सिद्ध न हो । अनुमान के अवयवों के बारे में उन के विचार न्यायदर्शन की परम्परा से भिन्न हैं अतः वे न्यून, अधिक आदि निग्रहस्थानों को अनावश्यक मानते हैं । निग्रहस्थानों को दो प्रकारों में संगृहीत करने का संकेत न्यायसूत्र में भी मिलता है" । १. न्यायमंजरी भा. २ पृ. १८३ । ननु सैवेयं साधर्म्यादिसमा प्रकरणसमा वा जातिर्न भेदान्तरम् ? मैवम् । उद्भावनप्रकारेण भेदात् । परपक्षोपमर्दबुद्ध्या साधर्म्यादिसमा जातिः प्रयुज्यते, पक्षान्तरोत्थापनास्थया प्रकरणसमा, अप्रतिपत्तिपर्यवसायित्वाशयेन इयमुपपत्तिसमा इति । २. उपर्युक्त पृ. १८५ । अविशेषसमा एव इयं जातिरितिचेत् तत्र हि सत्तायोगात् सर्वभावानामविशेष आपादितः इह तु घटसाधर्म्यादेिव अनित्यत्वमापादितम् इति उद्भावनाभङ्गिभेदाच्च जातिनानात्वमिति असकृदुक्तम् । ३. न्यायसूत्र अ. आ. २. ४, वादन्याय पृ. २ । असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥ ९. न्यायसूत्र १-२-१९ । विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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