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प्रमाप्रमेयम्
के विना भी जिस की उपपत्ति लगती है अर्थात साध्य से जिस का अविनाभाव संबन्ध नही है ) वह अकिंचित्कर हेत्वाभास है - असिद्ध आदि उसी के प्रकार हैं । किन्तु माणिक्यनन्दि ने हेतु के लक्षण में परिवर्तन न करते हुए भी हेत्वाभास के चार प्रकार किये हैं । वे असिद्ध आदि तीन प्रकारों के साथ अकिंचित्कर यह चौथा प्रकार मानते हैं ( जो सिद्ध या बाधित साध्य में प्रयुक्त हो उसे वे अकिंचित्कर कहते हैं ) २ ।
भावसेन ने असिद्ध आदि हेत्वाभासों के कई उपभेदों का जो वर्णन किया है वह प्रायः शब्दशः भासर्व ज्ञके अनुसार है । अन्य जैन आचायों ने इन उपभेदों के वर्णन में रुचि नही दिखाई है । भावसेन ने स्वयं भी विश्वतत्त्वप्रकाश (पृ. ४१ ) में असिद्ध के दो ही प्रकार बतलाये हैंअविद्यमान सत्ताक और अविद्यमाननिश्चय । प्रभाचन्द्र ने विशेष्यासिद्ध आदि प्रकारों का अविद्यमानसत्ताक असिद्ध में समावेश किया है" ।
दृष्टान्ताभास ( परि० ४०-४२ )
भावसेन ने अन्वयदृष्टान्त के छह तथा व्यतिरेकदृष्टान्त के छह आभास बताये हैं । इनका वर्णन भासर्वज्ञ के अनुसार है" । जयन्त ने अन्वय और व्यतिरेक दोनों दृष्टान्तों के पांच-पांच आभास बतलाये हैं - उन्होंने आश्रयविकल का वर्णन नही किया है तथा अप्रदर्शितव्याप्ति के स्थान पर अनन्वय का वर्णन किया है । सिद्धर्षि ने इन आभासों की संख्या तो बारह ही मानी है किन्तु स्वरूप भिन्न प्रकार से बताया है - साध्यविकल, साधनविकल, व उभयविकल के साथ संदिग्धसाध्य, संदिग्धसाधन व संदिग्धोभय ये प्रकार
१. न्यायविनिश्चय श्लो. २६९ । साघनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं ततोऽपरे । विरुद्धासिद्धसंदिग्धा अकिंचित्करविस्तराः ||
२. परीक्षामुख ६ - २१ । हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकाकिंचित्कराः । ३. न्यायसार पृ. २५- ३५। ४. प्रमेयकमलमार्तण्ड ६-२२.
५. न्यायसार पृ. ३६-३८.
६. न्यायमंजरी भा, २ पृ. १४० । तत्र साध्यविकलः साधनविकल उभयविकल इति वस्तुदोष कृतास्त्रयः साधर्म्यदृष्टान्ताभासाः अनन्वयो विपरीतान्वय इति द्वौ वचनदोषकृतौ वैधदृष्टान्ताभासा अपि पञ्चैव साध्यान्यावृत्तः साधनाव्यावृत्त उभयाव्यावृत्त इति वस्तुदोषास्त्रयः अव्यतिरेको विपरीतव्यतिरेक इति वचनदोषौ द्वौ ।
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