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________________ १३६ प्रमाप्रमेयम् प्रत्यभिज्ञान (परि० १३) प्रत्यभिज्ञान शब्द का अर्थ है पहचानना । किन्तु इस प्रमाण में आचार्यों ने पहचानने के साथ साथ समानता, भिन्नता, निकटता, दूरता, छोटाई, बडाई, ऊंचाई जैसे तुलनात्मक ज्ञान के सभी प्रकारों का समावेश किया है । इस तरह न्यायदर्शन के उपमान प्रमाण का ( जिस में एक चीज की समानता से दूसरी चीज जानी जाती है२ ) यह विकसित रूप है। बौद्ध आचार्यों ने इस प्रमाण को भ्रमपूर्ण माना है क्यों कि वे प्रत्येक पदार्थ को क्षणस्थायी मानते हैं और क्षणस्थायी पदार्थ की तुलना करना संभव नही होता । इस का खण्डन भावसेन ने विश्वतत्वप्रकाश (परि० (७): में किया है । इस के तुलनात्मक टिप्पण वहां देखने चाहिएं । अनुयोगद्वार सूत्र ( सृ. १४४ ) में औपम्य प्रमाण इस संज्ञा में प्रत्यभिज्ञान के प्रकारों का अन्तर्भाव किया है। वहां औपम्य के दो प्रकार बतलाये हैं- साधोपनीत तथा वैधयोपनीत । इन दोनों के तीन-तीन प्रकार किये. हैं- किंचित् साधोपनीत, प्रायःसाधम्योपनीत तथा सर्वसाधोपनीत, इसी प्रकार वैधर्म्य के भी किंचित् , प्रायः तथा सर्व ये प्रकार हैं । ऊहापोह ( परि० १४) इस का विवेचन ऊपर परोक्ष के प्रकारों में हो चुका है। तर्क (परि० १५) भावसेन ने तर्क शब्द का उपयोग दो अर्थों में किया है। इस परिच्छेद में व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहा है। आगे परि. ४३ में प्रतिपक्ष में आत्माश्रय, इतरेतराश्रय आदि दोष बतलाना यह तर्क का स्वरूप बतलाया है। १. परीक्षामुख ३-५, ६ । दर्शन स्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् तदेवेदं तत्सदृशं तद् विलक्षणं तत् प्रतियोगीत्यादि । यथा स एवायं देवदत्ता, गोसदृशो गवयः गोविलक्षणो महिषः इदमस्माद् दूरं वृक्षोऽयमित्यादि । २. न्यायसूत्र १-१-६ । प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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