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________________ तुलना और समीक्षा १२९ बौद्ध आचार्यों ने शब्दयोजना से पूर्ववर्ती निर्विकल्प ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना है । जैन आचार्यों का इस विषय में यह मत है कि वस्तु के कल्प ग्रहण को दर्शन कहा जाय-ज्ञान नहीं । वह ज्ञान ही नही होता अतः प्रमाण भी नहीं हो सकता । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के खण्डन के लिए भावसेन ने विश्वतत्वप्रकाश में एक परिच्छेद (८९) लिखा है । प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रकार ( परि० ३ - ९ ) आगमों की प्राचीन परम्परा में अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा - केवलज्ञान इन तीन प्रकारों में प्रत्यक्षप्रमाण का विभाजन मिलता है । इस · का अनुसरण कुन्दकुन्द और उमास्वाति ने किया है । ये तीनों ज्ञान अतीकेन्द्रिय हैं । इस परम्परा के अनुसार इन्द्रिय और मन द्वारा होनेवाले समस्त -ज्ञान परोक्ष हैं | आगमों में मिलनेवाली दूसरी परम्परा के अनुसार उक्त तीन ज्ञानों को नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहा है तथा स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों से प्राप्त • ज्ञान को इन्द्रियप्रत्यक्ष कहा है । उक्त विरोध को दूर करने के लिए जिन भद्रगणी ने इन्द्रियप्रत्यक्ष को संव्यवहारप्रत्यक्ष कहते हुए अवधि आदि ज्ञानों को मुख्य • प्रत्यक्ष कहा है । अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष के तीन प्रकार किये हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष (स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान ये ज्ञान जब तक शब्दाश्रित नही होते तब तक मन द्वारा प्रत्यक्ष जाने जाते हैं) तथा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ( अवधि आदि तीन ज्ञान ) ५ । इन में प्रथम दो प्रकारों को १. प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् ( न्यायबिन्दु ४ ) २. ये मूल उल्लेख ऊपर उद्धृत कर चुके हैं । ३. अनुयोगद्वारसूत्र (सू. १४४) । पच्चक्खे दुवि हे पण्णत्ते । तं जहा इंदियपच्चक्खे अ जोइंदियपच्चक्खे अ । से किं तं इंदियपच्चवखे । इंदियपच्चक्य पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदिय पच्चक्खे चवखुरिंदियपच्चक्खे घार्गिदियपञ्चवखे जिब्भिदिय पच्चक्खे फासिंदियपच्चकखे । ... णोइंदियपच्चक्खे तिविहे पण्णत्ते । तं जदा - ओद्दिणाण पच्चक्खे मणपज्जवणाणपच्चवखे केवलण णपच्चक्खे | ४. इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं । विशेषावश्यक भाष्य गा. ९५ ५. प्रमाणसंग्रह लो. १| प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं तत्वज्ञानं विशदम् । इन्द्रियप्रत्यक्षमनिन्द्रियप्रत्यक्ष मतीन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिधा । प्र.प्र. ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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