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________________ -१•९९] पत्र का लक्षण परार्थे तात्विकस्येव स्यातां जयपराजयौ । कथाया अवसानोऽपि जयाजयसमाप्तितः ॥ ८२ ॥ [ ९९. पत्रलक्षणम् ] इदानीं पत्रावलम्बनविषयः । पत्रलक्षणमुच्यते । मात्सर्येण विवादस्य वृत्तौ वादिप्रवादिनोः । पत्रावलम्बनं तत्र भवेन्नान्यत्र कुत्रचित् ॥ ८३ ॥ तत्तन्मतप्रसिद्धाङ्गं गूढार्थ गूढसत्त्वकम् । स्वेप्रसाधकं वाक्यं निर्दोषं पत्रमुत्तमम् ॥ ८४ ॥ प्रसिद्धावयवं गूढपदप्रायं सुशब्दकम् । स्वेष्टप्रसाधकं वाक्यं निर्व्यग्रं पत्रमुच्यते ॥ ८५ ॥ उक्तं च । प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥ ८६ ॥ ( पत्रपरीक्षा पृ. १ ) ८७ होता है उसे परार्थन कहते हैं क्यों कि वह दूसरे की इच्छा के मानने से होता है । परार्थन बाद में जय-पराजय के नियम तात्त्विक वाद के समान होते हैं तथा जय अथवा पराजय में समाप्त होने पर कथा ( उस चर्चा ) का -अन्त होता है । पत्र का लक्षण अब पत्र के सम्बन्ध में विचार करेगें । पत्र का लक्षण इस प्रकार हैवादी तथा प्रतिवादी में मत्सर से युक्त (प्रतिपक्षी पर विजय प्राप्त करने की ईर्ष्या से सहित) विवाद हो वहां पत्र का आश्रय लिया जाता है, अन्यत्र कहीं भी नहीं । वह वाक्य निर्दोष तथा उत्तम पत्र होता है जो उस उस मत मैं ( पत्र का प्रयोग करनेवाले वादी के मत में ) प्रसिद्ध अंगों से युक्त हो, जिस - का अर्थ तथा तात्पर्य गूढ हो तथा जो अपने इष्ट तत्त्व को सिद्ध करता हो । जिस में प्रसिद्ध (अपने मत की रीति के अनुसार ) अवयव हों, जिस के शब्द अच्छे किन्तु प्रायः गूढ हो तथा जो अपने इष्ट तत्त्व को सिद्ध करता हो उस वाक्य को निर्दोष पत्र कहते हैं । कहा भी है- प्रसिद्ध अवयवों से युक्त, अपने - इष्ट अर्थ को सिद्ध करनेवाला तथा अच्छे किन्तु प्रायः गूढ शब्दों से बना हुआ वाक्य निर्दोष पत्र होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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