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प्रस्तावना
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'सुयं भे पाउसं तेरणं भगवया एवमक्खाय' इस वाक्य से प्रागमों का जो प्रारम्भ होता है, उसकी व्याख्या करते हुए टीकाकारों ने यह स्पष्ट मत प्रकट किया है कि इससे भगवान के मुख से सुनने वाले आर्य सुधर्मा अभिप्रेत हैं और वे अपने शिष्य जम्बू को इस श्रुत का अर्थ सम्बन्धित प्रागमों में बताते हैं । उक्त वाक्य से शुरु होने वाले प्रागमों में प्राचारांग, स्थानांग, समवायांग का निर्देश किया जा सकता है। कुछ ऐसे भी पागम हैं जिनके अर्थ की प्ररूपणा जम्बू के प्रश्न के आधार पर सुधर्मा ने की है, किन्तु उस विषय का ज्ञान भगवान् महावीर से ही प्राप्त हुआ था; ऐसे आगम ये हैं- ज्ञाताधर्म कथा, अनुत्तरोपपातिक, विपाक, निरयावलिका।
आर्य सुधर्मा का गुण-वर्णन भी इन्द्रभूति गौतम जैसा ही है, भेद केवल यह है कि उन्हें ज्येष्ठ नहीं कहा है।
गणधरों के सम्बन्ध में इतनी बातें मूल आगमों में मिलती हैं। इनमें यह बात ध्यान देने योग्य है कि गणधरवाद में प्रत्येक गणधर के मन की जिन शंकानों की कल्पना की गई
न्होंने भगवान् के सन्मुख पहले व्यक्त किया अथवा भगवान् ने उनकी शंकाएँ पहले ही बतादी, इस विषय में कुछ भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता। कल्पसूत्र से इस बात की आशा की जा सकती थी किन्तु उसमें भी इस सम्बन्ध में निर्देश नहीं है । गणधरवाद का मूल सर्वप्रथम आवश्यक नियुक्ति की ही एक गाथा में मिलता है। इस गाथा में 11 गणधरों के संशयों को क्रमश: इस प्रकार गिनाया गया है :
जीवे कम्मे तज्जीव भूय तारिसय बंधमोक्खे य । देवा' हेरइय' या पुण्णे परलोय10 रोव्वारगे ॥
प्राव०नि० गाथा 596 1. जीव है या नहीं? 2. कर्म है या नहीं ? 3. शरीर ही जीव है अथवा अन्य ? 4. भूत हैं या नहीं ? 5. इस भव में जीव जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है या नहीं ? 6. बन्ध-मोक्ष है या नहीं ? 7. देव हैं अथवा नहीं ? 8. नारक हैं अथवा नहीं ? 9. पुण्य-पाप है या नहीं ? 10. परलोक है या नहीं ? 11. निर्वाण है अथवा नहीं ?
इसके अतिरिक्त नियुक्ति में गणधरों के विषय में जो व्यवस्थित बातें उपलब्ध होती हैं, उन्हें अगले पृष्ठ पर कोष्ठक के रूप में प्रतिपादित किया गया है ।
1. इसी प्रकार का एक कोष्ठक कल्पसूत्रार्थ-प्रबोधिनी में प्राचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने दिया
है (पृ० 255) । उनमें कुछ और बातें मिलाकर मैंने इसे तैयार किया है। देखें-प्रा०नि० गा० 593-659
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