________________ गणघरवाद की गाथाएँ 231 सिज्झन्ति सोम्म ! बहुसो जीवा गवसनसंभवो ण वि य / परिमितदेसो लोगो ण संति चेगिदिया जेसि / / 1760 / / तेसि भवविच्छित्ती पावति गेडा य सा जतो तेरणं / सिद्धमरणंता जीवा भूताधारा य तेऽवस्सं // 1761 // एकमहिसाऽभावो जीवघणं ति ण य त जतोऽभिहितं / सत्थोवहतमजीब ण य जीवघरणं ति तो हिंसा // 1762 / / ण य घायउ त्ति हिंसो णाघातेंतो त्ति खिच्छितमहिसो। ण विरलजीवमहिसो रण य जीवघणो त्ति तो हिंसो // 17631 अहरपंतो वि हु हिंसो दुतणो मतो अहिमरो व्व। बाधेतो चिण हिंसो सुद्धत्तरगतो जघा वेज्जो // 1764 / / पंचसमितो तिगुत्तो गाणी अविहिंसनो ण चिवरीतो। होतु व संपत्ती से मा वा जीवोवरोधेरणं // 1765 / / असुभो जो परिणामो सा हिंसा सो तु बाहिरणिमित्तं / को वि अवेक्खेज्ज ण वा जम्हाऽरगतियं बज्झं // 1766 / / असभपरिणामहेऊ- जीवाबाधो त्ति तो मतं हिंसा / जरस तु ण सो णिमित्तं संतो वि ण तस्स सा हिंसा // 1767 / / सातयो रतिफला ण वीतमोहस्स भावसुद्धीतो। जध तध जीवाबाधो ण सुद्धमणसो वि हिंसाए // 1768 / / *छिण्णम्मि संसम्मि जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं / / सो समणो पब्वइतो पंचहि सह खंडियसतेहिं / / 1766 / 1. पातइ ति ला० / 2. हिंसा ता० / 3. बाहिंतो न वि मु० को० // 4 हैउता० // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org