________________ 230 मणधरवाद अत्थि अपच्चक्खं पि हु जध भवतो संसयातिविण्णाणं / अध पत्थि सुण्णता का कास व केणोवलद्धा वा / / 1747 / / पच्चक्खेसु ण जुत्तो तुह भूमि-जलाणलेसु संदेहो। अरिगलागासेसु भवे सो वि रण कज्जोणुमारणातो / / 1748 / / अत्थि प्रदेसापादितफरिसातीर्ण गुणी गुणत्तणतो। रूवस्स घडो व्व गुणी जो तेसि सोऽणिलो णामं / / 1746 / / अत्थि वसुधातिभाणं तोयस्स घडोव्व मुत्तिमत्तातो। जं भूताणं भाणं तं वोमं वत्त ! सुव्वत्तं // 1750 / / एवं पच्चखादिप्पमाणसिद्धाइ सोम्म ! पडिवज्ज / जीवसरीराधारोवयोगधम्माइभूताइ।।१७५१॥ किध सज्जीवाइौंमती तल्लिगतोऽणिलावसाणाई। वोमं विमुत्तिभावादाधारो चेव रण सजीवं / / 1752 / / जम्म-जरा-जीवण-मरण-रोहणा-हारदोहलामयतो। रोग-तिगिच्छातीहि य गारि व्व सचेतरगा तरवो / / 1753 / / छिक्कपरोइया छिक्कमतसंकोयतो कूलिंगो व्व / आसयसंचारातो वियत्त ! वल्लीवितागाई / / 1754 / / सम्मादयो य सावप्पबोधसंकोयणादितोऽभिमया / बउलातम्रो य सद्दातिविसय कालोवलम्भातो // 1755 / / मंसंकुरोव्व सामाणजातिरूवंकुरोवलम्भातो। तरुगरण-विदुम-लवरणो-वलादयो सासयावत्था / / 1756 / / भूमिक्खतसाभावियसंभवतो ददुरो व्व : लमत्तं / अहवा मच्छो व्व सभाववोमसम्भूतपातातो / / 1757 / / अपरप्पेरिततिरियारिणय मितदिग्गमरणतोऽरिणलो गो व्व / अगलो आहारातो विद्धि-विकारोवलम्भातो // 1758 / / तरणवोऽब्भातिविकारमुत्तजा तत्ततोऽणिलंताई। सत्थासत्थहताग्रो णिज्जीवसजीवरूवालो / / 1756 / / 1. ण जुत्तोऽणुमाणाप्रो को० मु०। 2. अदिस्सा-मु०; अद्दिसा-को। 3. छिक्कपरो को० मु०। 4. मेन को० मु०। 5. -भिमतो ता०। 6. -कालाव -ता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org