________________ 72 गणधरवाद [ गणधर ऐसी मान्यता है / किन्तु सामग्री के घटक प्रत्येक हेतु अथवा प्रत्यय में यदि कार्योत्पादन सामर्थ्य ही न हो तो वह सामग्री में भी कैसे हो सकता है ? जैसे कि रेत के प्रत्येक कण में तेल का अभाव होने से समग्र करणों में भी तेल का अभाव ही होता है / अर्थात् संसार में कार्य जैसी कोई वस्तु प्रमाणित न हो, सर्वाभाव हो जाए, तो फिर सामग्री का प्रश्न ही कैसे उत्पन्न होगा ? तथा सामग्री के अभाव में कार्य का भी अभाव हो जायगा / इस तरह सर्व-शून्यता की ही सिद्धि होती है / कहा भी है: हेतु प्रत्यय रूप सामग्री यदि पृथक हो तो उसमें कार्य का दर्शन नहीं होता और जब तक घटादि कार्य उत्पन्न न हो तब तक उसमें घटादि संज्ञा की प्रवृत्ति न होने के कारण वह स्वभावतः अनभिलाप्य (अवाच्य) है।" ____ "संसार में जहाँ कहीं संज्ञा की प्रवत्ति दृष्टिगोचर होती है वह सामग्री में ही है, अतः भाव ही नहीं हैं / भाव न हों तो सामग्री भी नहीं होती।” (1665) अदृश्य होने के कारण शून्यता सर्व-शून्यता की सिद्धि निम्न प्रकार से भी की जाती है:-जो अदृश्य है वह अनुपलब्ध होने के कारण खर-विषाण के समान असत् ही है / जिसे दृश्य कहा जाता है उसका भी पिछला भाग अदृश्य होने से तथा निकटतम भाग सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता, अतः उसे भी सर्वथा अदृश्य मानना चाहिए / इसलिए वह भी खर-विषाण के समान शून्य होगा। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि स्तम्भादि बाह्य पदार्थ दिखाई तो देते हैं, फिर उन्हें अदृश्य कैसे कहा सकता है ? इसका समाधान यह है कि स्तम्भादि समस्त पदार्थ अखण्ड तो दिखाई नहीं देते / हम उसके तीन अवयवों की कल्पना करें-अन्तिम भाग, मध्य भाग तथा हमारे सन्मुख उपस्थित अग्र भाग। इनमें अन्तिम और मध्य भाग तो दिखाई ही नहीं देते, अत: वे अदृश्य हैं। सामने का जो भाग हमें दिखाई देता है वह भी सावयव है / उसके अन्तिम अवयव तक जाएँ तो वह परमाणु ही होगा। वह भी सूक्ष्म होने के कारण अदृश्य है। इस प्रकार स्तम्भादि पदार्थों का वस्तुतः दर्शन ही सम्भव नहीं / इसलिए वे सब अनुपलब्ध होने के कारण खर-विषाण के समान असत् ही हैं। इससे सर्व-शून्यता सिद्ध होतो है। कहा भी है : - "जो कुछ दृश्य है उसका पर (पश्चात्) का भाग तो दिखाई नहीं देता। अतः ये सब पदार्थ स्वभाव से अनभिलाप्य (अवाच्य) ही हैं / "3 1. हेतुप्रत्यसामग्री पृथग्भावेष्वदर्शनात् / तेन ते नाभिलाप्या हि भावा: सर्वे स्वभावतः / / 2. लोके यावत् संज्ञा सामग्र्यामेव दृश्यते यस्मात् / तस्मान् न सन्ति भावा भावेऽमति नास्ति सामग्री / / 3. य वद् दृश्यं परस्तावद् भागः स च न दृश्यते / तेन ते नाभिलाप्या हि भावाः सर्वे स्वभावतः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org