________________ 19 इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा जीव-पद सार्थक है अपि च, 'जीव' पद 'घट' पद के समान व्युत्पत्ति युक्त शुद्ध पद होने के कारण सार्थक होना चाहिए-अर्थात् जीव पद का कुछ अर्थ होना चाहिए / जो पद सार्थक नहीं होता, वह व्युत्पत्ति युक्त शुद्ध पद भी नहीं होता, जैसे डित्थ या खरविषाण आदि पद। जीव पद वैसा नहीं है वह व्युत्पत्ति वाला पद है, अतः उसका अर्थ होना ही चाहिए। ___ इन्द्रभूति - देह ही 'जीव' पद का अर्थ है। उससे भिन्न कोई वस्तु जीव पद का अर्थ नहीं है / शास्त्र-वचन भी है। 'जीव शब्द का व्यवहार देह के लिए ही होता है, जैसे कि यह जीव है, वह इसका घात नहीं करता / तात्पर्य यह है कि आप जीव को तो नित्य मानते हैं, अतः इसके घात का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, शरीर का ही घात होता है / अतः उक्त वचन में जीव के घात का जो निषेध बताया गया है, वह जीव शब्द का अर्थ शरीर मान कर ही है। जीव-पद का अर्थ देह नहीं भगवान्-'जीव' पद का अर्थ शरीर नहीं हो सकता / कारण यह है कि जीव शब्द के पर्याय शरीर शब्द के पर्यायों से भिन्न हैं। जिन शब्दों के पर्यायों में भेद हो उन शब्दों के अर्थ में भी भेद होना चाहिए / जैसे घट शब्द और आकाश शब्द के पर्याय भिन्न-भिन्न हैं और उनके अर्थ भी भिन्न हैं। इसी प्रकार जीव और शरीर के भी पर्याय भिन्न-भिन्न हैं, जैसे कि जीव के पर्याय हैं --जन्तु, प्राणी, सत्व,आत्मा आदि / शरीर के पर्याय हैं -देह, वपु, काय, कलेवर आदि / इस प्रकार पर्याय का भेद होने पर भी यदि अर्थ में अभेद हो तो संसार में वस्तु भेद ही नहीं रह सकता; सभी को एक रूप ही मानना पड़ेगा / उक्त शास्त्र-वचन में शरीर को जो जीव कहा गया है, वह उपचार से है, क्योंकि जीव प्रायः शरीर का सहचारी है और शरीर में ही अवस्थित है। इसीलिए शरीर में जीव का उपचार कर दिया जाता है / वस्तुतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न ही हैं / यदि ऐसा न हो तो लोगों का यह कहना कि 'जीव तो चला गया, अब शरीर को जला दो,' शक्य नहीं हो सकता। फिर, देह और जीव के लक्षण भी भिन्न हैं। जीव ज्ञानादि गुण-युक्त है जब कि देह जड़ है / अतः देह ही जीव कैसे हो सकता है ? अतः तुम्हें दोनों को पृथक ही मानना चाहिए / मैं तुम्हें यह पहले ही समझा चुका हूँ कि ज्ञानादि गुण देह में सम्भव नहीं, क्योंकि देह मूर्त है-इत्यादि / [1775-76] सर्वज्ञ-वचन द्वारा जीव-सिद्धि इस प्रकार मैंने प्रत्यक्ष और अनुमान से जीव का अस्तित्व सिद्ध किया है। 1. देह एवाऽयमनुप्रयुज्यमानो दृष्टः, यथेषः जीवः, एनं न हिनस्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org