________________ 18 गणधरवाद [ गणधर इन्द्रभूति--मुझे आप की ये सब बातें सर्वथा असम्बद्ध प्रतीत होती हैं। आप इस बात की ओर ध्यान नहीं देते कि मेरी त्रिलोकेश्वरता मूल में ही असत् अथवा अविद्यमान है, अतः असत् का ही निषेध किया गया है। इसी प्रकार प्रतिषेध का पांचवां प्रकार भी सर्वथा असत् है, इसीलिए उसका निषेध किया गया है। इसी प्रकार संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष ये सब भी असत् ही हैं, इसीलिए घर आदि में उनका निषेध किया गया है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि जो असत् है, उसका निषेध होता है, अतः आपका यह कथन प्रयुक्त है कि 'जिसका निषेध होता है, वह विद्या भान ही होता है।' सर्वथा असत् का निषेध नहीं भगवान्– मेरे कथन को ठीक तरह समझने का प्रयत्न करोगे तो वह तुम्हें युक्तिपूर्ण ज्ञात होगा / मैंने यह नहीं कहा कि जिसका निषेध किया जाता है, वह सर्वत्र सर्वथा होता है / मेरे कहने का भावार्थ इतना ही है कि जहाँ जिस वस्तु का निषेध किया जाए, वह चाहे वहाँ न हो, तथापि वह अन्यत्र विद्यमान होती है / देवदत्त का संयोग घर में भले ही न हो, किन्तु अन्यत्र मार्ग में अथवा किसी दूसरे के घर में तो देवदत्त का संयोग विद्यमान ही होता है। इसी प्रकार समवाय, सामान्य और विशेष के विषय में यह निश्चित है कि एक जगह यदि उनका निषेध किया जाए तो वे अन्यत्र विद्यमान ही होते हैं / इन्द्र भूति—आपकी बात मान कर हो यदि मैं यह कहँ कि शरीर में जीव नहीं तो इसमें क्या दोष है ? शरीर में विद्यमान जीव का ही मैं निषेध करता हूँ। आप शरीर में भी जीव मानते हैं। मुझे इस पर आपत्ति है। शरीर जीव का प्राश्रय है भगवान्-तुमने यह कह कर मेरा परिश्रम कम कर दिया है। मेरा मूल उद्देश्य जीवन के अस्तित्व को सिद्ध करना है। यदि उसकी सिद्धि हो जाए तो उसका आश्रय, स्वतः सिद्ध हो ही जाएगा; क्योंकि जीव निराश्रय नहीं है। तुमने शरीर में जीव का निषेध किया है, इससे उसकी विद्यमानता उक्त नियम से सिद्ध हो ही जाती है / अब इस प्रश्न पर विचार करना है कि वह वस्तुतः शरीर में है या नहीं ? जीवित शरीर में जीव की उपस्थिति के चिह्न (ज्ञानादि) दिखाई देते हों, तो शरीर में जीव क्यों न माना जाए ? तुम ही इसे सोच कर बतायो। इन्द्रभूति-शरीर में जीव मानने के स्थान पर शरीर को ही जीव मानने में क्या बाधा है ? __ भगवान्–जब तक शरीर में जीव होता है तब तक ही यह व्यवहार होता है कि 'यह जीवित है / शरीर से जीव का सम्बन्ध टूट जाने पर कहा जाता है कि 'यह मर गया' / जीव में मढ़ता आने पर कहा जाता है कि 'यह मूछित हो गया।' यदि शरीर को ही जीव माना जाए, तो ये व्यवहार नहीं हो सकते / [1574] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org