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________________ इन्द्रभुति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा इन्द्रभूति--जीव के स्थान पर देह को ही गुणी मान लें, क्योंकि देह में ही संशय उत्पन्न होता है। भगवान्--देह मूर्त है और जड़ है, किन्तु ज्ञान अमूर्त और बोध रूप है। इस तरह यह दोनों अननुरूप हैं-विलक्षण हैं, अतः इन दोनों का गुण-गुणी-भाव घटित नहीं हो सकता / अन्यथा आकाश में भी रूप गुण मानना पड़ेगा। अतः देह को संशय का गुणी नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त जिसे स्वरूप में ही सन्देह हो--अपने विषय में ही सन्देह हो, उसके लिए समस्त विश्व में कोई भी चीज असंदिग्ध कैसे होगी ? उसे सर्वत्र ही संशय होगा / आत्म-बाधक अनुमान के दोष आत्मा के अहंप्रत्यय द्वारा प्रत्यक्ष होने पर भी तुम यह अनुमान करते हो कि 'पात्मा नहीं है--क्योंकि उसमें अस्तित्व अर्थात् भाव के ग्राहक पाँचों प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं है।' तुम्हारे इस अनुमान में तुम्हारा पक्ष प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभासमिथ्यापक्ष सिद्ध होता है / जैसे कि शब्द का श्रवण द्वारा प्रत्यक्ष होता है, फिर भी कोई कहे कि 'शब्द तो अश्रावण है'--अर्थात् वह कर्णग्राह्य नहीं, तो उसका पक्ष प्रत्यक्ष बाधित होने के कारण पक्षाभास है / 'प्रात्मा नहीं' तुम्हारा यह पक्ष अनुमान बाधित भी है। आत्म-साधक अनुमान आगे बताऊँगा। उस अनुमान से तुम्हारा पक्ष बाधित हो जाता है। जैसे कि मीमांसकों का यह पक्ष कि 'शब्द नित्य है' नैयायिक आदि के शब्द की अनित्यता के साधक अनुमान द्वारा बाधित हो जाता है। पुनश्च 'मैं संशयकर्ता हूँ' यह बात स्वीकार करने के पश्चात् 'पात्मा नहीं है' अर्थात् 'मैं नहीं हूँ ऐसा कथन करने से तुम्हारा पक्ष स्वाभ्युपगम से भी बाधित होता है। इसका कारण यह है कि 'मैं संशयकर्ता हूँ' यह कह कर 'मैं' का स्वीकार तो किया हो गया है और अब 'मैं' का निषेध करते हो, अतः तुम्हारे इस 'मैं' के निषेध की बात अपने प्रथम अभ्युपगम-रवीकार से ही बाधित हो जाती है। जैसे कि सांख्य प्रात्मा को पहले अकर्ता,नित्य, चैतन्य स्वरूप स्वीकार करके फिर यदि यह कहें कि वह कर्ता है, अनित्य है, अचेतन है तो उनका पक्ष स्वाभ्युपगम से बाधित हो जाता है। अनपढ़ लोग भी आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। अतः 'प्रात्मा नहीं' तुम्हारा यह पक्ष लोकविरुद्ध भी है / जैसे शशि को अचन्द्र कहना लोक-विरुद्ध है। तथा 'मैं आत्मा नहीं' अर्थात 'मैं, मैं नहीं' ऐसा कथन करना स्ववचन विरुद्ध भी है / जैसे कोई यह कहे कि मेरी माता वन्ध्या है। इस प्रकार तुम्हारा पक्ष ही युक्त नहीं है। यह पक्षाभास है। अतः 'भावग्राहक पाँचों प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं' यह हेतु पक्ष का धर्म नहीं बन सकेगा, इसलिए यह हेतु प्रसिद्ध होगा। प्रसिद्ध हेतु हेत्वाभास कहलाता है। उससे साध्य सिद्धि नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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