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योग दर्शन की कर्म - प्रक्रिया से जैन दर्शन की अत्यधिक समानता है । योग-दर्शन के अनुसार विद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश ये पाँच क्लेश हैं । इन पाँच क्लेशों के कारण क्लिष्टवृत्ति-चित्त-व्यापार की उत्पत्ति होती है और उससे धर्म-अधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं । इनमें क्लेशों को भाव-कर्म, वृत्ति को योग और संस्कार को द्रव्य कर्म समझा जा सकता है । योग-दर्शन में संस्कार को वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा गया है । पुनश्च, इस मत में क्लेश और कर्म का कार्य-कारण-भाव जैनों के समान बीजांकुर की तरह अनादि माना गया है । जैन और योग-प्रक्रिया में अन्तर यह है कि, योग-दर्शन की प्रक्रियानुसार क्लेश, क्लिष्ट - वृत्ति और संस्कार इन सबका सम्बन्ध ग्रात्मा से नहीं अपितु चित्त अथवा ग्रन्तःकरण के साथ है और यह प्रन्तःकरण प्रकृति का विकार - परिणाम है |
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि, सांख्य मान्यता भी योग दर्शन जैसी ही है, परन्तु सांख्यकारिका व उसकी माठर-वृत्ति तथा सांख्यतत्त्वकौमुदी में बन्ध-मोक्ष की चर्चा के प्रसंग में जिस प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, उसकी जैन दर्शन की कर्म-सम्बन्धी मान्यता से जिस प्रकार की समानता है, वह विशेष रूप से ज्ञातव्य है । यह भेद ध्यान में रखना चाहिए कि, सांख्य-मतानुसार पुरुष कूटस्थ है और अपरिणामी है परन्तु जैन मतानुसार वह परिणामी है । क्योंकि सांख्यों ने आत्मा को कूटस्थ स्वीकार किया, अतः उन्होंने संसार एवं मोक्ष भी परिणामी प्रकृति में ही माने । जैनों ने आत्मा के परिणामी होने के कारण ज्ञान, मोह, क्रोध आदि आत्मा में ही स्वीकार किए। किन्तु सांख्यों ने इन सब भावों को प्रकृति का धर्म माना है, अतः उन्हें यह मानना पड़ा कि, उन भावों के कारण बन्ध-मोक्ष प्रात्म-स्थानीय पुरुष का नहीं होता, परन्तु प्रकृति का ही होता है । जैन और सांख्य प्रक्रिया में यही भेद है । इस भेद की उपेक्षा करने के पश्चात् यदि जैनों और सांख्य की संसार एवं मोक्ष विषयक प्रक्रिया की समानता पर विचार किया जाय तो ज्ञात होगा कि दोनों की कर्म-प्रक्रिया में कुछ भी अन्तर नहीं है ।
गणधरवाद
जैन-मतानुसार मोह, राग, द्वेष इन सब भावों के कारण अनादि काल से आत्मा के साथ पौद्गलिक कार्मण शरीर का सम्बन्ध है । भावों व कार्मण शरीर में बीजांकुरवत् कार्यकारण भाव है । एक की उत्पत्ति में दूसरा कारण रूप से विद्यमान रहता है, फिर भी अनादि काल से दोनों ही प्रात्मा के संसर्ग में प्राये हुए हैं। इस बात का निर्णय अशक्य है कि दोनों में प्रथम कौन है । इसी प्रकार सांख्य-मत में लिंग शरीर अनादि काल से पुरुष के संसर्ग में है । इस लिंग-शरीर की उत्पत्ति राग, द्वेष, मोह जैसे भावों से होती है और भाव तथा लिंग शरीर में भी बीजांकुर के समान ही कार्य-कारण- भाव है । जैसे जैन प्रदारिक (स्थूल) शरीर को कार्मण शरीर से पृथक् मानते हैं, वैसे ही सांख्य भी लिंग (सूक्ष्म) शरीर को स्थूल शरीर से भिन्न मानते हैं । जैनों के मत में स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही शरीर पौद्गलिक हैं, सांख्य-मत में ये
1. योग-दर्शन भाष्य 1.5; 2.3; 2.12; 2.13 तथा उसकी तत्त्ववैशारदी, भास्वति आदि टीकाएँ ।
सांख्यका० 52 की माठर वृत्ति तथा सांख्यतत्त्वकौमुदी ।
सांख्यका० 39
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