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________________ प्रस्तावना उल्लेख किया है, वे जैनों को मान्य हैं और जैन उन्हें भाव कर्म कहते हैं । नैयायिक जिसे दोषजन्य प्रवृत्ति कहते हैं, उसे ही जैन योग कहते हैं । नैयायिकों ने प्रवृत्ति - जन्य धर्माधर्म को संस्कार अथवा अदृष्ट की संज्ञा प्रदान की है, जैनों में पौद्गलिक-कर्म अथवा द्रव्य-कर्म का वही स्थान है । नैयायिक-मत में धर्माधर्म-रूप संस्कार प्रात्मा का गुण है । किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस मत में गुण व गुणी का भेद होने से केवल आत्मा ही चेतन है, उसका गुण संस्कार चेतन नहीं कहला सकता, क्योंकि संस्कार में चैतन्य का समवाय सम्बन्ध नहीं है । जैन सम्मत द्रव्य-कर्म भी प्रचेतन है, अतः संस्कार कहें या द्रव्य-कर्म, दोनों प्रचेतन हैं। दोनों मतों में भेद इतना ही है कि संस्कार एक गुण है जब कि द्रव्य-कर्म पुद्गल द्रव्य है । गहन विचार करने पर यह भेद भी तुच्छ प्रतीत होता है । जैन यह मानते हैं कि द्रव्य-कर्म भाव - कर्म से उत्पन्न होते हैं । नैयायिक भी संस्कार की उत्पत्ति ही स्वीकार करते हैं । भाव-कर्म ने द्रव्यकर्म को उत्पन्न किया, इस मान्यता का अर्थ यह नहीं है कि भाव-कर्म ने पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न किया । जैनों के मत के अनुसार पुद्गल द्रव्य तो अनादिकाल से विद्यमान है, अतः उपर्युक्त मान्यता का भावार्थ यही है कि, भाव-कर्म ने पुद्गल का कुछ ऐसा संस्कार किया जिसके फलस्वरूप वह पुद्गल कर्म रूप में परिणत हुआ । इस प्रकार भाव-कर्म के कारण पुद्गल में जो विशेष संस्कार हुआ, वही जैन मत में वास्तविक कर्म है । यह संस्कार पुद्गल द्रव्य से अभिन्न है, अत: इसे पुद्गल कहा गया है। ऐसी परिस्थिति में नैयायिकों के संस्कार एवं जैन- सम्मत द्रव्य-कर्म में विशेष भेद नहीं रह जाता । जैनों ने स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर भी माना है । उसे वे कार्मण शरीर कहते हैं । इसी कार्मण शरीर के कारण स्थूल शरीर का श्राविर्भाव होता है । नैयायिक कार्मण शरीर को 'अव्यक्त-शरीर' भी कहते हैं । जैन कार्मण शरीर को प्रतीन्द्रिय मानते हैं, इसलिए वह व्यक्त ही है । वैशेषिक दर्शन की मान्यता भी नैयायिकों के समान है का प्रतिपादन किया है, उनमें प्रदृष्ट भी एक गुण है । यह गुण उसके दो भेद हैं--धर्म और अधर्म । इससे ज्ञात होता है कि, संस्कार शब्द से न कर ग्रदृष्ट शब्द से करते हैं । इसे मान्यता-भेद न मानकर केवल नाम-भेद समझना चाहिए; क्योंकि नैयायिकों के संस्कार के समान प्रशस्तपाद ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना है । । प्रशस्तपाद ने जिन 24 गुणों संस्कार गुण से भिन्न है" । प्रशस्तपाद धर्माधर्म का उल्लेख न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी दोष से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार एवं जन्म, यह परम्परा बीज और अंकुर के समान अनादि मानी है । यह जैनों द्वारा मान्य भाव- कर्म और द्रव्य कर्म की पूर्वोक्त अनादि परम्परा जैसी ही है । 1. 2. 3 3. 131 द्वे शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च प्रव्यक्ता च । तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतेरुपभोगात् प्रक्षयः । प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानानि भूतानि न शरीरमुत्पादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः । न्यायवा० 3.2.68 प्रशस्तपाद भाष्य पृ० 47, 437, 643 न्यायमंजरी पृ० 513 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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