SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 114 गणधरवाद रहित मानकर भी उन्होंने ईश्वरात्मा को नित्य ज्ञान, सुखादि से युक्त माना है । इस प्रकार प्रात्मा के स्थान पर परमात्मा में सर्वज्ञता और आत्यन्तिक सुख-आनन्द मानकर न्याय-वैशेषिक भी उन दार्शनिकों की पंक्ति में सम्मिलित हो गए हैं जो मुक्तात्मा को ज्ञान एवं सुखादि से सम्पन्न मानते हैं । बौद्धों ने दीपनिर्वाण की उपमा से निर्वाण का वर्णन किया है । इससे एक यह मान्यता प्रचलित हुई कि, निर्वाण में चित्त का लोप हो जाता है। निरोध शब्द का व्यवहार ऐसा था जो दार्शनिकों को भ्रम में डाल दे । इस से भी इस मान्यता को समर्थन प्राप्त हुआ कि मुक्ति में कुछ भी शेष नहीं रहता। किन्तु बौद्ध-दर्शन पर समग्र भाव से विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि, वहाँ भी निर्वाण का स्वरूप वैसा ही बताया गया है जैसा कि उपनिषदों अथवा अन्य दर्शन-शास्त्रों में | विश्व के सभी पदार्थ संस्कृत अथवा उत्पत्तिशील हैं, अतः क्षणिक हैं, किन्तु निर्वाण अपवाद स्वरूप है । निर्वाण असंस्कृत है । उस की उत्पत्ति में कोई भी हेतु नहीं है, अतः उस का विनाश भी नहीं होता । असंस्कृत होने के कारण वह अजात, अभूत और अकृत है । संस्कृत अनित्य, अशुभ और दुःखरूप होता है किन्तु असंस्कृत ध्र व, शुभ और सुखरूप है । जिस प्रकार उपनिषदों में ब्रह्मानन्द को आनन्द की पराकाष्ठा' माना गया है, उसी प्रकार निर्वाण का प्रानन्द भी आनन्द की पराकाष्ठा है । इस तरह बौद्धों के मतानुसार भी निर्वाण में ज्ञान और प्रानन्द का अस्तित्व है। यह ज्ञान और प्रानन्द प्रसंस्कृत अथवा अज कहे गए हैं, अतः नैयायिकों के ईश्वर के ज्ञान और प्रानन्द से वस्तुतः इनका कोई भेद नहीं है। यही नहीं, प्रत्युत वेदान्त-सम्मत ब्रह्म की नित्यता और प्रानन्दमयता तथा बौद्धों के निर्वाण में भी भेद नहीं है। सांख्य-मत में भी नैयायिकों द्वारा मान्य आत्मा के समान मुक्तावस्था में विशुद्ध चैतन्य ही शेष रहता है। नैयायिक-मत में ज्ञान, सुखादि अात्मा के गुण हैं किन्तु उन की उत्पत्ति शरीराश्रित है। अत: शरीर के अभाव में उन्होंने जैसे उन गुणों का प्रभाव स्वीकार किया, वैसे ही सांख्य-मत को यह स्वीकार करना पड़ा कि ज्ञान, सुखादि प्राकृतिक धर्म होने के कारण प्रकृति का वियोग होने पर मुक्तात्मा में विद्यमान नहीं रहते और पुरुष मात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्थिर रहता है । सांख्य लोग मानते हैं कि, पुरुष को जब कैवल्य की प्राप्ति होती है तब वह मात्र शुद्ध चैतन्य रूप होता है । गणधरवाद के पाठकों को ज्ञात हो जाएगा कि 1. न्यायमंजरी पृ, 200-201 2. इसी का खंडन प्रस्तुत गणधरवाद में किया गया है, गाथा 1975 3. निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है-विसुद्धिमग्ग 8.247;16.64 निर्बाध अभावरूप नहीं, इसका समर्थन विसुद्धि मग्ग 16.67 में देखें। 5. उदान 73; विसुद्धिमग्ग 16,74 6. उदान 80; विसुद्धिमग्ग 16.75; 16.90 7. तैत्तिरीय 2.8 8. मज्झिमनिकाय 57 (बहुवेदनीय सुत्रांत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy