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प्रस्तावना
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तुच्छ प्रतीत हुए और उन्होंने त्याग एवं तपश्चर्या की कठिन यातनाओं को सहर्ष सहन किया । नचिकेता जैसे बालक भी मृत्यु के उपरान्त आत्मा की दशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इतने उत्सुक हो गए कि उन्हें ऐहिक अथवा स्वर्ग के सुख-साधन हेय दिखाई दिए । मैत्रेयी जैसी महिलाएं अपने पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकार लेने की अपेक्षा आत्मविद्या की शोध में तल्लीन हो गई और पतिदेव से कहने लगी कि, जिसे पाकर मै अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करू ? अतः भगवन् ! यदि आप अमर होने का उपाय जानते हैं तो मुझे बताइए । कुछ लोग तो पुकार-पूकार कर कहने लगे कि, जिसमें द्यलोक, अन्तरिक्ष और पृथ्वी तथा सर्व प्राणों सहित मन प्रोत-प्रोत है, ऐसे एक-मात्र आत्मा का ही ज्ञान प्राप्त करो, शेष सब झंझट छोड़ दो। अमरता प्राप्त करने के लिए यह प्रात्मा सेतु के समान है। याज्ञवल्क्य तो सब से आगे बढ़ कर यह घोषणा करते हैं कि, पति, पत्नी, पुत्र, धन, पशु ये सब चीजें प्रात्मा के निमित्त ही प्रिय मालूम होती हैं, अतः इस आत्मा को ही देखना चाहिए, उस के विषय में ही सुनना चाहिए, विचार करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए, ऐसा करने से सब कुछ ज्ञात हो जाएगा ।
इस प्रवृत्ति का एक शुभ फल यह हुआ कि विचारकों के मन में वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति विरोध की भावना जागरित हो गई, किन्तु प्रात्म-विद्या का भी अतिरेक हुआ और अतीन्द्रिय प्रात्मा के विषय में प्रत्येक व्यक्ति मनमानी कल्पना करने लगा। ऐसी परिस्थिति में प्रौपनिषद्-अात्मविद्या के विषय में प्रतिक्रिया का सूत्रपात होना स्वाभाविक था। भगवान् बुद्ध के उपदेशों में हमें वही प्रतिक्रिया दृष्टिगोचर होती है। सभी उपनिषदों का अन्तिम निष्कर्ष तो यही है कि, विश्व के मूल में मात्र एक ही शाश्वत आत्मा-ब्रह्म-तत्त्व है और इसे छोड़ कर अन्य कुछ भी नहीं है । उपनिषत् के ऋषियों ने अन्त में यहाँ तक कह दिया कि, अद्वैत तत्त्व के होते हुए भी जो व्यक्ति संसार में भेद की कल्पना करते हैं वे अपने सर्वनाश को निमन्त्रण देते हैं। इस प्रकार उस समय प्रात्मवाद की भीषण बाढ़ आई थी, अतः उस बाढ़ को रोकने के लिए बाँध बाँधने का काम भगवान् बुद्ध ने किया। इस कार्य में उन्हें स्थायी सफलता कितनी मिली, यह एक पृथक् प्रश्न है। हमें केवल यह बताना है कि, भगवान् बुद्ध ने उस बाढ़ को अनात्मवाद की ओर मोड़ने का भरसक प्रयत्न किया।
जब हम यह कहते हैं कि भगवान् बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया, तब उसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि, उन्होंने आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध किया है। उस निषेध का अभिप्राय इतना ही है कि, उपनिषदों में जिस प्रकार के शाश्वत अद्वैत प्रात्मा का
1. कठोपनिषद् 1.1, 23-29. 2. बृहदा० 2-4-3. 3. मुण्डक 2-2-5. 4. बृहदा० 4-5-6. 5. मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ।
बृहदा० 4.4.19; कठ 4,11
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