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प्रस्तावना
होता है कि पूर्वकल्पित मनोमय प्रात्मा के साथ प्रज्ञानात्मा का समन्वय है । उसी उपनिषद् में प्रज्ञा और प्रज्ञान को एक ही माना है और प्रज्ञान के पर्याय के रूप में विज्ञान भी लिखा है ।
सारांश यह है कि विज्ञान, प्रज्ञा, प्रज्ञान ये समस्त शब्द एकार्थक माने गए और उसी अर्थ के अनुसार आत्मा को विज्ञानात्मा, प्रज्ञात्मा, प्रज्ञानात्मा स्वीकार किया गया । मनोमय आत्मा सूक्ष्म है, किन्तु मन किसी के मतानुसार भौतिक और किसी के मतानुसार प्रभौतिक है । किन्तु जब विज्ञान को प्रात्मा की संज्ञा प्रदान की गई, तब उसके बाद ही इस विचारणा को बल मिला कि आत्मा एक अभौतिक तत्व है । ग्रात्म-विचारणा के क्षेत्र में विज्ञान, प्रज्ञा अथवा प्रज्ञान को प्रात्मा कह कर विचारकों ने आत्म-विचार की दिशा में ही परिवर्तन कर दिया । अब उन्होंने इस मान्यता की और अग्रसर होना प्रारम्भ किया कि, ग्रात्मा मौलिक रूपेण चेतन तत्व है । प्रज्ञान की प्रतिष्ठा इतनी अधिक बढ़ी कि आन्तरिक और बाह्य सभी पदार्थों को प्रज्ञान का नाम दिया गया ।
अब प्रज्ञा तत्व का विश्लेषण अनिवार्य था, अतः उसके विषय में विचार प्रारम्भ हुआ । समस्त इन्द्रियों और मन को प्रज्ञा में ही प्रतिष्ठित माना गया। जिस समय मनुष्य सुप्त अथवा मृतावस्था में होता है, उस समय इन्द्रियाँ प्राण रूप प्रज्ञा में प्रन्तर्हित हो जाती हैं, अतः किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता । जब मनुष्य नींद से जागता है या पुनः जन्म ग्रहण करता है, तब जिस प्रकार चिनगारी में से अग्नि प्रकट होती है उसी प्रकार प्रज्ञा में से इन्द्रियाँ पुनः बाहर आती हैं और मनुष्य को ज्ञान होने लगता है । इन्द्रियाँ प्रज्ञा के एक अंश के समान हैं, इसलिए वे प्रज्ञा के बिना अपना काम करने में असमर्थ हैं, अतः इन्द्रियों और मन से भी भिन्न प्रज्ञात्मा का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बात की भी प्रेरणा की गई है कि, इन्द्रियों के विषयों का नहीं, परन्तु इन्द्रियों के विषयों के ज्ञाता प्रज्ञात्मा का ज्ञान प्राप्त किया जाए । मन का ज्ञान आवश्यक नहीं है, किन्तु मनन करने वाले का ज्ञान आवश्यक है । इस प्रकार 'कौषीतकी उपनिषद् में इस बात पर जोर दिया गया है कि, इन्द्रियादि साधनों से भी उच्च प्रज्ञात्मा'-साधक को जानना चाहिए ।
stant उपनिषत् के उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, इस उपनिषत् में प्रज्ञा को इन्द्रियों का अधिष्ठान माना गया है । किन्तु अभी प्रज्ञा के स्वतः प्रकाशित रूप की मोर विचारकों का ध्यान नहीं गया था । अतः सुप्तावस्था में इन्द्रियों के
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4. कौषीतको 3.2
कौषीतकी 3.5
कौषीतको 3.7
कौषीतकी 3.8
ऐतरेय 3.3
ऐतरेय 3.2
ऐतरेय 3.1.2-3
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