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________________ m तत्त्वानुशासन सि ३. अष्टदल कमल पर कर्णिका में "अ" चारों दिशाओं वाले पत्तों पर सि, आ, उ, सा तथा विदिशाओं वाले पत्तों पर दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के प्रतीक द, ज्ञा, चा, त की स्थापना करे । ( वसु० आ० ) नेत्रद्वन्दे श्रवणयुगले नासिकाने ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भ्रयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र देहे, तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥ दो नेत्र, श्रवणयुगल, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, शिर, हृदय, तालु, भौंह ये दस स्थान ध्यान के समय चित्त को रोकने के लिये आलम्बन रूप कहे गये हैं। श्लोकवार्तिकाकार आचार्यश्री ने मन्त्रों का जाप चार प्रकार से किया जा सकता है, इसके लिये बहुत सुन्दर कहा है "चतुर्विधा हि वाग्वैखरीमध्यमापश्यन्ती सूक्ष्माश्चेति ।" (१) वैखरी (२) मध्यमा (३) पश्यन्ति (४) सूक्ष्म । पुनः-पुनः उन्हीं शब्दों को बोलना जप है-"जपः स्यादक्षरावृत्तिः" १. वैखरी-जैसे जोर-जोर से बोलकर णमोकार मन्त्र का जप करें जिसे दूसरे लोग भी सुन लें वह वैखरी विधि कहलाती है। इसके शब्द 1.बाहर बिखर जाते हैं । इस तरह के जाप में केवल चार आना लाभ होता है बारह आने जाप बिखर जाता है । २. मध्यमा-इस विधि में होठ नहीं हिलते किन्तु अन्दर जीभ हिलती रहती है। आशाधरसूरि ने इसे उपांशु जाप कहा है। इसमें शब्द मुंह से बाहर नहीं आते। ३. पश्यन्ति-इस विधि में न होठ हिलाते हैं और न जीभ हिलती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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