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________________ तत्त्वानुशासन लाख करो, इक ठौर सके ना ऐसा है ये आवारा। जाने कितनी चाह समेटे, फिरता मन का बंजारा । जितनी लहरें इस मन में हैं, क्या होंगी सागर की कभी तो घर की बातें, कभी व्यापार की कैसे रोक्....." मन का नियंत्रण दुर्धर है, मन का नियंत्रण कैसे हो ? जिनने मन को जीता उसी की वन्दना है ऋषि मुनि तक रोक न पाये, कौन इसे समझायेगा। सचमुच वे हैं वन्दनीय जिनने इस मन को मारा ।। पथिक ! इसको रोका कि पल-पल टोका, ध्यान की कमान से तभी रुकी गति मन बेइमान की.......... ध्यान की कमान द्वारा इस चंचल मन को रोका जा सकता है अतः प्रत्येक भव्यात्माओं को ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। __मन को जीतने के उपाय संचितयन्ननुप्रेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुद्यतः । जयत्येव मनः साधुरिन्द्रियार्थपराङ्मुखः ॥ ७९ ॥ अर्थ-स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों से पराङ्मुख ( उदासोन ) हुआ साधु, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता हुआ व हमेशा ही स्वाध्याय में तत्पर होता हुआ, मन को अवश्य हो वश में कर लेता है ।। ७९ ॥ विशेष-जिस प्रकार अहमिन्द्र देव अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं उसी प्रकार जो अहमिन्द्र के समान अपने-अपने कार्यों में नियत है, अपनेअपने कार्यों में स्वतन्त्र हैं वे इन्द्रियाँ कहलाती हैं। ये इन्द्रियाँ पाँच हैंस्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण। एक इन्द्रिय का कार्य दूसरी नहीं कर सकती। स्पर्श का विषय-छना, रसना का विषय स्वाद लेना, घ्राण का विषय सूधना, चक्षु का विषय देखना तथा कर्णेन्द्रिय का विषय सुनना है । एक-एक इन्द्रिय के वश हुआ जीव अपना सर्वस्व खो बैठता है__ "अलि पतंग मग मीन गज, याके एक ही आच । तुलसी वाकी का गति जिनके पीछे पाँच ॥" हे आत्मन् ! मन पर विजय पाने के लिये पञ्चेन्द्रिय विषयों से पराडमुख होना आवश्यक है। ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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