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तत्त्वानुशासन
विशेष - मन अनियत आकांक्षाओं का आगार है अतः इसे अनिन्द्रिय कहा है । पाँचों इन्द्रियरूपी घोड़ों की दौड़ अपनी-अपनी सीमा में है जबकि मन रूपी बन्दर की चाल बेलगाम के घोड़े की तरह असीमित है । मन की दशा कैसी है उसका कल्पना चित्र खींचते हुए एक कवि ने लिखा है
एक विशाल हाल में चारों तरफ काँच लगा दीजिये, उसमें बन्दर को छोड़िये । बन्दर के हाथ में छड़ी दे दीजिये और उसे शराब पिलाकर छोड़ दीजिये । उसकी जो दशा है वही दशा इस मनरूपी बन्दर की है। जब तक यह नहीं जीता जाता तब तक इन्द्रियों को जीतना भी अशक्य है । कवि कहता है
"मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।"
मन विजयी हो गया तो सारा संसार जीत लिया ऐसा समझो । क्योंकि
"जगत् गुरु तो सब मिले, जो मन का गुरु नहीं, वह जगत्
मन का गुरु न कोय ।
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गुरु न होय ॥"
संयम, साधना ध्यान की कसौटी पर जीवन को कसकर मन को वश किया जाता है । यह मन कैसा है—
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" मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर । मन के मते न चालिये, पलक-पलक मन ओर || " चपल, लोभी मन के अनुसार चलने वाला जीव कभी सुखी नहीं होता । फिर इसका निग्रह कैसे किया जाय ? आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ग्रंथराज समयसार में लिखते हैं
विज्जारह मारूढ़ो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा ।
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठि मुणेयव्व ॥ २३६ ॥
हे भव्यात्माओं ! यदि मन को जीतना चाहते हो तो विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ होकर मनरूपी रथ के चलने के मार्ग में भ्रमण करो ।
ज्ञान और वैराग्य के द्वारा इन्द्रियों की विजय ज्ञानवैराग्यरज्जूम्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः । जितचित्तेन शक्यन्ते धतुं मिन्द्रियवाजिनः ॥ ७७ ॥
अर्थ - अपने मन को जीत लेने वाला व्यक्ति हमेशा कुमार्ग में जाने वाले इन्द्रिय रूपी घोड़ों को ज्ञान एवं वैराग्य रूपी रस्सियों से पकड़ सकता है ।। ७७ ।।
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